Meri Bhavna | मेरी भावना 

जिसने राग-द्वेष-कामादिक जीते, सब जग जान लिया |
सब जीवों को मोक्षमार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया ||
बुद्ध-वीर-जिन-हरि-हर-ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो |
भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो ||१||

विषयों की आशा नहिं जिनको, साम्य-भाव धन रखते हैं |
निज-पर के हित-साधन में जो, निश-दिन तत्पर रहते हैं ||
स्वार्थ-त्याग की कठिन-तपस्या, बिना खेद जो करते हैं |
ऐसे ज्ञानी-साधु जगत् के, दु:ख-समूह को हरते हैं ||२||

रहे सदा सत्संग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे |
उन ही जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरत्त रहे ||
नहीं सताऊँ किसी जीव को, झूठ कभी नहिं कहा करूँ |
पर-धन-वनिता पर न लुभाऊँ, संतोषामृत पिया करूँ ||३||

अहंकार का भाव न रक्खूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ |
देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्या ह-भाव धरूँ ||
रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य-व्यवहार करूँ |
बने जहाँ तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूँ ||४||

मैत्रीभाव जगत् में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे |
दीन-दु:खी जीवों पर मेरे, उर से करुणा-स्रोत बहे ||
दुर्जन-क्रूर-कुमार्ग-रतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे |
साम्यभाव रक्खूँ मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ||५||

गुणी-जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे |
बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके यह मन सुख पावे ||
होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे |
गुण-ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ||६||

कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे |
लाखों वर्षों तक जीऊँ या, मृत्यु आज ही आ जावे ||
अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आवे |
तो भी न्याय-मार्ग से मेरा, कभी न पग डिगने पावे ||७||

होकर सुख में मग्न न फूले, दु:ख में कभी न घबरावे |
पर्वत-नदी-श्मशान भयानक-अटवी से नहीं भय खावे ||
रहे अडोल-अकंप निरंतर, यह मन दृढ़तर बन जावे |
इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग में, सहन-शीलता दिखलावे ||८||

सुखी रहें सब जीव जगत् के, कोई कभी न घबरावे |
बैर-पाप-अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे ||
घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावे |
ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना, मनुज-जन्म-फल सब पावे ||९||

ईति-भीति व्यापे नहिं जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे |
धर्मनिष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे ||
रोग-मरी-दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शांति से जिया करे |
परम अहिंसा-धर्म जगत् में, फैल सर्व-हित किया करे ||१०||

फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करे |
अप्रिय-कटुक-कठोर शब्द नहिं, कोई मुख से कहा करे ||
बनकर सब ‘युगवीर’ हृदय से, देशोन्नति-रत रहा करें |
वस्तु-स्वरूप-विचार खुशी से, सब दु:ख-संकट सहा करें ||११||

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