RATANAKAR PANCHVINSHTIKA | रत्नाकर पंचविंशतिका

शुभ-केलि के आनंद के धन के मनोहर धाम हो,
नरनाथ से सुरनाथ से पूजित चरण गतकाम हो |
सर्वज्ञ हो सर्वोच्च हो सबसे सदा संसार में,
प्रज्ञा कला के सिन्धु हो, आदर्श हो आचार में ||१||

संसार-दु:ख के वैद्य हो, त्रैलोक्य के आधार हो,
जय श्रीश! रत्नाकरप्रभो! अनुपम कृपा-अवतार हो |
गतराग! है विज्ञप्ति मेरी, मुग्ध की सुन लीजिए,
क्योंकि प्रभो! तुम विज्ञ हो, मुझको अभय वर दीजिए ||२||

माता-पिता के सामने, बोली सुनाकर तोतली,
करता नहीं क्या अज्ञ बालक, बाल्य-वश लीलावली |
अपने हृदय के हाल को, त्यों ही यथोचित-रीति से,
मैं कह रहा हूँ आपके, आगे विनय से प्रीति से ||३||

मैंने नहीं जग में कभी कुछ, दान दीनों को दिया,
मैं सच्चरित भी हूँ नहीं, मैंने नहीं तप भी किया |
शुभ-भावनाएँ भी हुई, अब तक न इस संसार में,
मैं घूमता हूँ, व्यर्थ ही, भ्रम से भवोदधि-धार में ||४||

क्रोधाग्नि से मैं रात-दिन हा! जल रहा हूँ हे प्रभो !
मैं ‘लोभ’ नामक साँप से, काटा गया हूँ हे विभो !
अभिमान के खल-ग्राह से, अज्ञानवश मैं ग्रस्त हूँ,
किस भाँति हों स्मृत आप, माया-जाल से मैं व्यस्त हूँ ||५||

लोकेश! पर-हित भी किया, मैंने न दोनों लोक में,
सुख-लेश भी फिर क्यों मुझे हो, झींकता हूँ शोक में |
जग में हमारे सम नरों का, जन्म ही बस व्यर्थ है,
मानो जिनेश्वर! वह भवों की, पूर्णता के अर्थ है ||६||

प्रभु! आपने निज मुख-सुधा का, दान यद्यपि दे दिया,
यह ठीक है पर चित्त ने, उसका न कुछ भी फल लिया |
आनंद-रस में डूबकर, सद्वृत्त वह होता नहीं,
है वज्र-सा मेरा हृदय, कारण बड़ा बस है यही ||७||

रत्नत्रयी दुष्प्राप्य है, प्रभु से उसे मैंने लिया,
बहु-काल तक बहु-बार जब, जग का भ्रमण मैंने किया |
हा! खो गया वह भी विवश, मैं नींद आलस में रहा,
बतलाइये उसके लिए रोऊँ, प्रभो! किसके यहाँ? ||८||

संसार ठगने के लिए, वैराग्य को धारण किया,
जग को रिझाने के लिए, उपदेश धर्मों का दिया |
झगड़ा मचाने के लिए, मम जीभ पर विद्या बसी,
निर्लज्ज हो कितनी उड़ाऊँ, हे प्रभो! अपनी हँसी ||९||

परदोष को कहकर सदा, मेरा वदन दूषित हुआ,
लखकर पराई नारियों को, हा नयन दूषित हुआ |
मन भी मलिन है सोचकर, पर की बुराई हे प्रभो !
किस भाँति होगी लोक में, मेरी भलाई हे प्रभो!||१०||

मैंने बढ़ाई निज विवशता, हो अवस्था के वशी,
भक्षक रतीश्वर से हुई, उत्पन्न जो दु:ख-राक्षसी |
हा! आपके सम्मुख उसे, अति लाज से प्रकटित किया,
सर्वज्ञ! हो सब जानते, स्वयमेव संसृति की क्रिया ||११||

अन्यान्य मंत्रों से परम, परमेष्ठि-मंत्र हटा दिया,
सच्छास्त्र-वाक्यों को कुशास्त्रों, से दबा मैं ने दिया |
विधि-उदय को करने वृथा, मैंने कुदेवाश्रय लिया,
है नाथ! यों भ्रमवश अहित, मैंने नहीं क्या-क्या किया ||१२||

हा! तज दिया मैंने प्रभो ! प्रत्यक्ष पाकर आपको,
अज्ञानवश मैंने किया, फिर देखिये किस पाप को |
वामाक्षियों के राग में, रत हो सदा मरता रहा,
उनके विलासों के हृदय में, ध्यान को धरता रहा ||१३||

लखकर चपल-दृग-युवतियों, के मुख मनोहर रसमई,
जो मन-पटल पर राग भावों, की मलिनता बस गई |
वह शास्त्र-निधि के शुद्ध जल से, भी न क्यों धोई गई,
बतलाइए यह आप ही, मम बुद्धि तो खोई गई ||१४||

मुझमें न अपने अंग के, सौन्दर्य का आभास है,
मुझमें न गुणगण हैं विमल, न कला-कलाप-विलास है |
प्रभुता न मुझ में स्वप्न को, भी चमकती है देखिये,
तो भी भरा हूँ गर्व से, मैं मूढ़ हो किसके लिए ||१५||

हा! नित्य घटती आयु है, पर पाप-मति घटती नहीं,
आई बुढ़ौती पर विषय से, कामना हटती नहीं |
मैं यत्न करता हूँ दवा में, धर्म मैं करता नहीं,
दुर्मोह-महिमा से ग्रसित हूँ, नाथ! बच सकता नहीं ||१६||

अघ-पुण्य को, भव-आत्म को, मैंने कभी माना नहीं,
हा! आप आगे हैं खड़े, दिननाथ से यद्यपि यहीं |
तो भी खलों के वाक्यों को, मैंने सुना कानों वृथा,
धिक्कार मुझको है गया, मम जन्म ही मानों वृथा ||१७||

सत्पात्र-पूजन देव-पूजन कुछ नहीं मैंने किया,
मुनिधर्म-श्रावकधर्म का भी, नहिं सविधि पालन किया |
नर-जन्म पाकर भी वृथा ही, मैं उसे खोता रहा,
मानो अकेला घोर वन में, व्यर्थ ही रोता रहा ||१८||

प्रत्यक्ष सुखकर जिन-धरम, में प्रीति मेरी थी नहीं,
जिननाथ! मेरी देखिये, है मूढ़ता भारी यही |
हा! कामधुक कल्पद्रुमादिक, के यहाँ रहते हुए,
हमने गँवाया जन्म को, धिक्कार दु:ख सहते हुए ||१९||

मैंने न रोका रोग-दु:ख, संभोग-सुख देखा किया,
मनमें न माना मृत्यु-भय, धन-लाभ ही लेखा किया |
हा! मैं अधम युवती-जनों, का ध्यान नित करता रहा,
पर नरक-कारागार से, मन में न मैं डरता रहा ||२०||

सद्वृत्ति से मन में न, मैंने साधुता ही साधिता,
उपकार करके कीर्ति भी, मैंने नहीं कुछ अर्जिता |
शुभ तीर्थ के उद्धार आदिक, कार्य कर पाये नहीं,
नर-जन्म पारस-तुल्य निज मैंने गँवाये व्यर्थ ही ||२१||

शास्त्रोक्त-विधि वैराग्य भी, करना मुझे आता नहीं,
खल-वाक्य भी गतक्रोध हो, सहना मुझे आता नहीं |
अध्यात्म-विद्या है न मुझमें, है न कोई सत्कला,
फिर देव! कैसे यह भवोदधि, पार होवेगा भला? ||२२||

सत्कर्म पहले-जन्म में, मैंने किया कोई नहीं,
आशा नहीं जन्मान्य में, उसको करूँगा मैं कहीं |
इस भाँति का यदि हूँ जिनेश्वर! क्यों न मुझको कष्ट हों
संसार में फिर जन्म तीनों, क्यों न मेरे नष्ट हों? ||२३||

हे पूज्य! अपने चरित को, बहुभाँति गाऊँ क्या वृथा,
कुछ भी नहीं तुमसे छिपी, है पापमय मेरी कथा |
क्योंकि त्रिजग के रूप हो, तुम ईश, हो सर्वज्ञ हो,
पथ के प्रदर्शक हो तुम्हीं, मम चित्त के मर्मज्ञ हो ||२४||

दीनोद्धारक धीर हे प्रभु! आप-सा नहीं अन्य है,
कृपा-पात्र भी नाथ! न, मुझ-सा कहीं अवर है |
तो भी माँगूं नहीं धान्य धन कभी भूलकर,
अर्हन्! प्राप्त होवे केवल, बोधिरत्न ही मंगलकर ||२५||

(दोहा)

श्री रत्नाकर गुणगान यह, दुरित-दु:ख सबके हरे |
बस एक यही है प्रार्थना, मंगलमय जग को करे ||

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