जिनवाणी स्तुति | Jinvani Stuti
मिथ्यातम नासवे को, ज्ञान के प्रकासवे को,
आपा-पर भासवे को, भानु-सी बखानी है ।
छहों द्रव्य जानवे को, बन्ध-विधि भानवे को,
स्व-पर पिछानवे को, परम प्रमानी है ॥
अनुभव बतायवे को, जीव के जतायवे को,
काहू न सतायवे को, भव्य उर आनी है ।
जहाँ-तहाँ तारवे को, पार के उतारवे को,
सुख विस्तारवे को, ये ही जिनवाणी है ॥
हे जिनवाणी भारती, तोहि जपों दिन रैन,
जो तेरी शरणा गहै, सो पावे सुख चैन ।
जा वाणी के ज्ञान तें, सूझे लोकालोक,
सो वाणी मस्तक नवों, सदा देत हों ढोक ॥
जुनवानी स्तुति वर्णन २
वीर हिमाचल तें निकसी गुरु गौतम के मुख-कुंड ढरी है |
मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ आतप दूर करी है ||
ज्ञान-पयोनिधि-माँहि रली, बहु-भंग-तरंगनि सों उछरी है |
ता शुचि-शारद-गंगनदी प्रति, मैं अंजुरी करि शीश धरी है ||
या जग-मंदिर में अनिवार, अज्ञान-अंधेर छयो अति-भारी |
श्री जिन की ध्वनि दीपशिखा-सम जो नहिं होति प्रकाशनहारी ||
तो किस भाँति पदारथ-पाँति! कहाँ लहते रहते अविचारी |
या विधि संत कहें धनि हैं धनि हैं जिन-बैन बड़े उपकारी ||
दोहा:
जा वाणी के ज्ञान तें, सूझे लोक-अलोक |
सो वाणी मस्तक नमूं, सदा देत हूँ धोक ||
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