पंचकल्याणक मंगल पाठ | Panchkalyanak mangal paath

पणविवि पंच परमगुरु, गुरुजिन शासनो |
सकल-सिद्धि-दातार सु विघन-विनाशनो ||
सारद अरु गुरु गौतम सुमति प्रकाशनो |
मंगल कर चउ संघहि पाप-पणासनो ||
पापहिं पणासन, गुणहिं गरुवा, दोष अष्टादश-रहिउ |
धरि ध्यान कर्म विनाश केवलज्ञान अविचल जिन लहिउ ||
प्रभु पञ्चकल्याणक विराजित, सकल सुर नर ध्यावहीं |
त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं |1|

 (1)   गर्भ कल्याणक
जाके गर्भ कल्याणक धनपति आइयो |
अवधिज्ञान-परवान सु इंद्र पठाइयो ||
रचि नव बारह योजन, नयरि सुहावनी |
कनक-रयण-मणि-मंडित, मन्दिर अति बानी ||
अति बनी पौरि पगारि परिखा, भुवन उपवन सोहये |
नरनारि सुन्दर चतुर भेख सु, देख जनमन मोहये ||
तहं जनकगृह छहमास प्रथमहिं, रतन-धारा बरसियो |
पुनि रुचिकवासिनि जननि-सेवा करहिं सबविधि हरसियो |2|

सुरकुंजर-सम कुंजर, धवल धुरंधरो |
केहरि-केशर-शोभित, नख-शिख सुन्दरो ||
कमला-कलश-न्हवन, दुइ दाम सुहावनी |
रवि-शशि-मंडल मधुर, मीन जुग पावनी ||
पावनि कनक-घट-जुगम पूरण, कमल-कलित सरोवरो |
कल्लोल माला कुलित सागर, सिंहपीठ मनोहरो ||
रमणिक अमरविमान फणिपति-भवन भुवि छवि छाजई |
रुचि रतनराशि दिपंत-दहन सु तेजपुंज विराजई |3|

ये सखि सोलह सुपने सूती सयनही |
देखे माय मनोहर, पश्चिम रयनही ||
उठि प्रभात पिय पूछियो, अवधि प्रकाशियो |
त्रिभुवनपति सुत होसी, फल तिहँ भासियो ||
भासियो फल तिहिं चिंत दम्पति परम आनन्दित भये |
छहमास, परि नवमास पुनि तहं, रयन दिन सुखसों गये ||
गर्भावतार महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं |
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |4|                                                                           

(2)   जन्म कल्याणक
मति-श्रुत-अवधि-विराजित, जिन जब जनमियो |
तिहुंलोक भयो छोभित, सुरगन भरमियो ||
कल्पवासि घर घंट अनाहद वज्जियो |
ज्योतिष-घर हरिनाद सहज गलगज्जियो ||
गज्जियो सहजहिं संख भावन, भुवन शब्द सुहावने |
व्यंतर-निलय पटु पटहिं बज्जिय, कहत महिमा क्यों बने ||
कंपित सुरासन अवधिबल जिन-जनम निहचै जानियो |
धनराज तब गजराज मायामयी निरमय आनियो |5|

योजन लाख गयंद, वदन सौ निरमये |
वदन वदन वसुदंत, दंत सर संठये ||
सर-सर सौ-पनवीस, कमलिनी छाजहीं |
कमलिनि कमलिनि कमल पचीस विराजहीं ||
राजहीं कमलिनि कमलऽठोतर सौ मनोहर दल बने |
दल दलहिं अपछर नटहिं नवरस, हाव भाव सुहावने ||
मणि कनक-किंकणि वर विचित्र सु अमर-मण्डप सोहये |
घन घंट चँवर ध्वजा पताका, देखि त्रिभुवन मोहये |6|

तिहिं करि हरि चढ़ि आयउ सुर-परिवारियो |
पुरहिं प्रदच्छन दे त्रय, जिन जयकारियो ||
गुप्त जाय जिन-जननिहिं, सुखनिद्रा रची |
मायामई शिशु राखि तौ, जिन आन्यो शची ||
आन्यो शची जिनरुप निरखत, नयन तृपति न हूजिये |
तब परम हरषित ह्रदय हरिने सहस-लोचन पूजिये ||
पुनि करि प्रणाम जु प्रथम इन्द्र, उछंग धरि प्रभु लीनऊ |
ईशान इन्द्र सुचंद्र छवि सिर, छत्र प्रभु के दीनऊ |7|

सनतकुमार महेन्द्र चमर दुइ ढारहीं |
शेष शक्र जयकार शबद उच्चारहीं ||
उच्छव-सहित चतुरविधि हरषित भये |
योजन सहस निन्यानवै गगन उलंघि गये ||
लंघि गये सुरगिरि जहां पांडुक वन विचित्र विराजहीं |
पांडुक-शिला तहँ अर्द्धचन्द्र समान, मणि छवि छाजहीं ||
जोजन पचास विशाल दुगुणायाम, वसु ऊंची घना |
वर अष्ट-मंगल कनक कलशनि सिंहपीठ सुहावनी |8|

रचि मणिमंडप शोभित, मध्य सिंहासनो |
थाप्यो पूरब मुख तहँ प्रभु कमलासनो ||
बाजहिं ताल मृदंग, वेणु वीणा घने |
दुंदुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जु बाजने ||
बाजने बाजहिं शची सब मिलि, धवल मंगल गावहीं |
पुनि करहिं नृत्य सुरांगना, सब देव कौतुक ध्यावहीं ||
भरि क्षीरसागर जल जु हाथहिं हाथ सुरगन ल्यावहीं |
सौधर्म अरु ईशान इन्द्र सुकलश ले प्रभु न्हावहीं |9|

वदन उदर अवगाह, कलशगत जानिये |
एक चार वसु जोजन, मान प्रमानिये ||
सहस-अठोतर कलसा, प्रभु के सिर ढरे |
पुनि सिंगार प्रमुख, आचार सबै करे ||
करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छव, आनि पुनि मातहिं दयो |
धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति, आप सुरलोकहिं गयो ||
जन्माभिषेक महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं |
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |10|

(3)   तप कल्याणक
श्रम-जल-रहित शरीर, सदा सब मल-रहिउ |
छीर वरन वर रुधिर, प्रथम आकृति लहिउ ||
प्रथम सार संहनन, सरुप विराजहिं |
सहज सुगंध सुलच्छन, मंडित छाजहीं ||
छाजहीं अतुल बल परम प्रिय हित, मधुर वचन सुहावने |
दस सहज अतिशय सुभग मूरति, बाललील कहावने ||
आबाल काल त्रिलोकपति मन-रुचिर उचित जु नित नये |
अमरोपनीत पुनीत अनुपम सकल भोग विभोगये |11|
भव-तन-भोग-विरत्त, कदाचित चिंतए |
धन-यौवन पिय पुत्त, कलित्त अनित्तए ||
कोउ न सरन मरन दिन, दुख चहुंगति भरयो |
सुखदुख एकहि भोगत, जिय विधि-वसि परयो ||
परयो विधि-वस आन चेतन, आन जड़ जु कलेवरो |
तन असुचि परतैं होय आस्रव परिहरे तैं संवरो ||
निरजरा तपबल होय समकित बिन सदा त्रिभुवन भ्रम्यो |
दुर्लभ विवेक बिना न कबहू, परम धरम विषैं रम्यो |12|

ये प्रभु बारह पावन भावन भाइया |
लौकांकित वर देव नियोगी आइया ||
कुसुमांजलि दे चरन कमल सिर नाइया |
स्वयंबुद्ध प्रभु थुतिकर तिन समुझाइया ||
समुझाय प्रभु को गये निजपुर, पुनि महोच्छव हरि कियो |
रुचि रुचिर चित्र विचित्र सिविका कर सुनन्दन वन लियो ||
तहँ पंचमुट्ठी लोंच कीनो, प्रथम सिद्धनि नुति करी |
मंडिय महाव्रत पंच दुद्धर सकल परिग्रह परिहरी |13|

मणि-मय-भाजन केश परिट्ठिय सुरपती |
छीर-समुद्र-जल खिप करि गयो अमरावती ||
तप-संयम-बल प्रभु को मनपरजय भयो |
मौन सहित तप करत काल कछु तहं गयो ||
गयो कुछ तहँ काल तपबल, रिद्धि वसुविधि सिद्धिया |
जसु धर्म ध्यान-बलेन खयगय, सप्त प्रकृति प्रसिद्धिया ||
खिपि सातवें गुण जतन बिन तहँ, तीन प्रकृति जु बुधिबढ़िउ |
करि करण तीन प्रथम सुकल-बल, खिपक-सेनी प्रभु चढ़िउ |14|

प्रकृति छतीस नवें गुण-थान विनासिया |
दसवें सूक्षम लोभ प्रकृति तहँ नासिया ||
सुकल ध्यानपद दुजो पुनि प्रभु पूरियो |
बारहवें-गुण सोरह प्रकृति जु चूरियो ||
चूरियो त्रेसठ प्रकृति इह विधि, घातिया-करमनि तणी |
तप कियो ध्यान-पर्यन्त बारह-विधि त्रिलोक-सिरोमणी ||
निःक्रमण-कल्याणक सु महिमा, सुनत सब सुख पावहीं |
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं |15|

 (4)   ज्ञान कल्याणक
तेरहवें गुणथान सयोगि जिनेसुरो |
अनंत-चतुष्टय-मंडित, भयो परमेसुरो ||
समवसरन तब धनपति बहु-विधि निरमयो |
आगम-जुगति प्रमान, गगन-तल परि ठयो ||
परि ठयो चित्र विचित्र मणिमय, सभा-मण्डप सोहये |
तिहि मध्य बारह बने कोठे, कनक सुरनर मोहये ||
मुनि कलप-वासिनि अरजिका, पुन ज्योति-भौमि-व्यन्तर-तिया |
पुनि भवन-व्यंतर नभग सुर नर पशुनि कोठे बैठिया |16|

मध्य प्रदेशहिं तीन मणिपीठ तहां बने |
गंधकुटी सिंहासन कमल सुहावने ||
तीन छत्र सिर सोहत त्रिभुवन मोहए |
अन्तरीच्छ कमलासन प्रभुतन सोहए ||
सोहये चौंसठ चमर ढुरत, अशोक-तरु-तल छाजए |
पुनि दिव्यधुनि प्रति-सबद-जुत तहँ, देव दुंदुभि बाजए ||
सुर-पुहुपवृष्टि सुप्रभा-मण्डल, कोटि रवि छवि छाजए |
इमि अष्ट अनुपम प्रातिहारज, वर विभुति विराजये |17|

दुइसौ जोजनमान सुभिच्छ चहूँ दिसी |
गगन-गमन अरु प्राणी-वध नहिं अह-निसी |
निरुपसर्ग निराहार, सदा जगदीश ए |
आनन चार चहुंदिसि सोभित दीसए ||
दीसय असेस विसेस विद्या, विभव वर ईसुरपना |
छाया-विवर्जित शुद्ध स्फटिक समान तन प्रभु का बना ||
नहिं नयन-पलक-पतन कदाचित् केश नख सम छाजहीं |
ये घातिया छय-जनित अतिशय, दस विचित्र विराजहीं |18|

सकल अरथमय मागधि-भाषा जानिए |
सकल जीवगत मैत्री-भाव बखानिए ||
सकल रितुज फलफूल वनस्पति मन हरे |
दरपन-सम मनि अवनि पवन-गति अनुसरे ||
अनुसरे, परमानंद सबको, नारि नर जे सेवता |
जोजन प्रमान धरा सुमार्जहिं, जहां मारुत देवता ||
पुन करहिं मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी |

पद-कमल-तर सुर खिपहिं कमलसु धरणि ससि-सोभा बनी |19|
अमल-गगन-तल अरु दिसि तहँ अनुहारहीं |
चतुर-निकाय देवगण जय जयकारहीं ||
धर्मचक्र चलै आगैं रवि जहँ लाजहीं |
पुनि भृंगारप्रमुख, वसु मंगल राजहीं ||
राजहीं चौदह चारु अतिशय, देव रचित सुहावने |
जिनराज केवलज्ञान महिमा, अवर कहत कहा बने |
तब इन्द्र आय कियो महोच्छव, सभा सोभा अति बनी ||
धर्मोपदेश दियो तहां, उच्चरिय वानी जिनतनी |20|

क्षुधा तृषा अरु राग रोष असुहावने |
जन्म जरा अरु मरण त्रिदोष भयावने ||
रोग सोग भय विस्मय अरु निन्द्रा घनी |
खेद स्वेद मद मोह अरति चिंता गनी ||
गनिए अठारह दोष तिनकारि रहित देव निरंजनो |
नव परम केवललब्धि मंडिय सिव-रमनि-मनरंजनो ||
श्री ज्ञानकल्याणक सुमहिमा, सुनत  सब सुख पावहीं |
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |21|

(5)   निर्वाण कल्याणक
केवल दृष्टि चराचर, देख्यो जारिसो |     (जारिसो जैसा)
भव्यनि प्रति उपदेश्यो, जिनवर तारिसो || (तारिसो तैसा)
भव-भय-भीत भविकजन, सरणै आइया |
रत्नत्रय-लच्छन सिवपंथ लगाइया ||
लगाइया पंथ जु भव्य पुनि प्रभु तृतिय सुकल जु पूरियो |
तजि तेरवों गुणथान जोग अजोगपथ पग धारियो ||
पुनि चौदहें चौथे सुकल बल बहत्तर तेरह हती |
इमि घाति वसुविध कर्म पहुंच्यो, समय में पंचम गती |22|

लोकशिखर तनुवात, वलयमहं संठियो |
धर्मद्रव्य बिन गमन न, जिहिं आगे कियो ||
मयन-रहित मूषोदर, अंबर जारिसो |
किमपि हीन निज तनुतैं, भयो प्रभु तारिसो ||
तारिसो पर्जय नित्य अविचल, अर्थपर्जय छनछयी |
निश्चयनयेन अनंतगुण, विवहार नय वसु-गुणमयी ||
वस्तुस्वभाव विभावविरहित, सुद्ध परिणति परिणयो |
चिद् रुप परमानंद मंदिर, सिद्ध परमातम भयो |23|

तनु-परमाणु दामिनि-वत, सब खिर गए |
रहे शेष नखकेश-रुप, जे परिणए ||
तब हरिप्रमुख चतुरविधि, सुरगण शुभ सच्यो |
मायामयि नखकेश-रहित, जिनतनु रच्यो ||
रचि अगर चंदन प्रमुख परिमल, द्रव्य जिन जयकारियो |
पदपतित अगनिकुमार मुकुटानल, सुविध संस्कारियो ||
निर्वाण कल्याणक सु महिमा, सुनत सब सुख पावहीं |
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |24|

मैं मतिहीन भगतिवस, भावन भाइया |
मंगल गीतप्रबंध, सु जिनगुण गाइया ||
जो नर सुनहिं बखानहिं सुर धरि गावहीं |
मनवांछित फल सो नर, निहचै पावहीं ||
पावहीं आठों सिद्धि नवनिध, मन प्रतीत जो लावहीं |
भ्रम भाव छूटैं सकल मनके निज स्वरुप लखावहीं ||
पुनि हरहिं पातक टरहिं विघन सु होंहिं मंगल नित नये |
भणि रुपचन्द त्रिलोकपति, जिनदेव चउ-संघहिं जये |25|

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