चैत्य भक्ति | Chaitya Bhakti

अजेय अघहर अद्भुत अद्भुत पुण्य बन्ध के कारक हैं।
करें उजाला पूर्ण जगत में सत्य तथ्य भव तारक हैं।
गौतम-पद को सन्मति पद को प्रणाम करके कहता हूँ।
चैत्यवन्दना जग का हित हो जग के हित में रहता हूँ॥१॥

अमर मुकुटगत मणि आभा जिन को सहलाती सन्त कहे
कनक कमल पर चरण कमल को रखते जो जयवन्त रहे।
जिनकी छाया में आकर के उदार उर वाले बनते
अदय क्रूर उर धारे आरे मान दम्भ से जो तनते॥ २॥

जैनधर्म जयशील रहे नित सुर-सुख शिव-सुख का दाता
दुर्गति दुष्पथ दु:खों से जो हमें बचाता है त्राता।
प्रमाणपन औ विविध नयों से दोषों के जो वारक हों
अंगबाह्य औ अंग-पूर्वमय जिनवच जग उद्धारक हों॥ ३॥

अनेकान्तमय वस्तु तत्त्व का सप्तभंग से कथन करे
तथा दिखाता सदा द्रव्य को धौव्य-आय-व्यय वतन अरे !
पूर्णबोध की इस विध द्युति से निरुपम सुख का द्वार खुले
दोष रहित औ नित्य निरापद संपद का भंडार मिले॥ ४॥

जन्म दु:ख से मुक्त हुये हैं अरहन्तों को वन्दन हो
सिद्धों को भी नमन करुँ मैं जहाँ कर्म की गन्ध न हो।
सदा वन्द्य है सर्ववन्द्य हैं साधुजनों को नमन करूँ ।
गणी पाठकों को वन्दूँ मैं मोक्ष-धाम को गमन करूँ ॥ ५॥

मोह-शत्रु को नष्ट किये हैं दोष - कोष से रहित हुये।
तदावरण से दूर हुये हैं प्रबोध दर्शन सहित हुये।
अनन्त बल के धनी हुये हैं अन्तराय का नाम नहीं।
पूज्य योग्य अरहन्त बने हैं तुम्हें नमूँ वसु याम सही॥ ६॥

वीतरागमय धर्म कहा है जिनवर ने शिवपथ नेता।
साधक को जो सदा संभाले मोक्षधाम में धर देता।
नमूँ उसे मैं तीन लोक के हित संपादक और नहीं।
आर्जव आदिक गुणगण जिससे बढ़ते उन्नति ओर सही॥ ७॥

सजे चतुर्दश पूर्वों से हैं औ द्वादश विध अंगों से
तथा वस्तुओं और उपांगों से गुंथित बहु भंगों से।
अजेय जिनके वचन रहे ये अनन्त अवगम वाले हैं।
इन्हें नमन अज्ञान-तिमिर को हरते परम उजाले हैं॥ ८॥

भवनवासियों के भवनों में स्वर्गिक कल्प विमानों में।
व्यन्तर देवावासों में औ ज्योतिष देव विमानों में।
विश्ववन्द्य औ मत्र्यलोक में जितने जिनवर चैत्य रहें।
मन वच तन से उन्हें नमूँ वे मम मन के नैवेद्य रहे॥ ९॥

सुरपति नरपति धरणेन्द्रों से तीन लोक में अर्चित हैं।
अनन्य दुर्लभ सभी सम्पदा जिनचरणों में अर्पित है।
तीर्थकरों के जिनालयों को तन वच मन परिणामों से।
नमूँ बनूँ बस शान्त बचूँ मैं भव-भवगत दुख-अनलों से॥ १०॥

इस विध जिनको नमन किया है पावनपण को हैं धारे।
पंचपदों से पूजे जाते परम पुरुष हैं जग सारे।
जिनवर जिनके वचन धर्म औ बिम्ब जिनालय ये सारे।
बुधजन तरसे विमल-बोधि को हमें दिलावे शिव-द्वारे॥ ११॥

नहीं किसी से गये बनाये स्वयं बने हैं शाश्वत हैं।
चम चम चमके दम दम दमके बाल-भानुसम भास्वत हैं।
और बनाये जिनालयों में नरों सुरों से पूजित हैं।
जिनबिम्बों को नमन करूँ मैं परम पुण्य से पूरित हैं॥ १२॥

आभामय भामण्डल वाली सुडोल हैं बेजोड़ रहीं।
जिनोत्तमों में उत्तम जिन की प्रतिमायें युग मोड़ रहीं।
विपदा हरती वैभव लाती सुभिक्ष करती त्रिभुवन में।
कर युग जोडूं विनम्र तन से नमूँ उन्हें हरखूं मन में॥ १३॥

आभरणों से आवरणों से आभूषण से रहित रही।
हस्त निरायुध, उपांग जिनके विराग छवि से सहित सही।
प्रतिमायें अ-प्रमित रही हैं, कान्ति अनूठी है जिनकी।
क्लान्ति मिटे चिर शान्ति मिले बस भक्ति करूँ निशिदिन उनकी॥१४॥

बाहर का यह रूप जिनों का स्वरूप क्या है ? बता रहा।
कषाय कालिख निकल गई है परम शान्ति को जता रहा।
स्वभाव-दर्शक भव-भवनाशक जिनबिम्बों को नमन करूँ।
साधन से सो साध्य सिद्ध हो कषाय मल का शमन करूँ॥ १५॥

लगा भक्ति में जिन बिम्बों की हुआ पुण्य का अर्जन है।
सहज रूप से अनायास ही हुआ पाप का तर्जन है।
किये पुण्य के फल ना चाहूँ विषय नहीं सुरगात्र नहीं
जन्म-जन्म में जैनधर्म में लगा रहे मन मात्र यही॥ १६॥

सब कुछ देखे सब कुछ जाने दर्शनधारी ज्ञानधनी।
गुणियों में अरहन्त कहाते चेतन के द्युतिमान मणी।
मिली बुद्धि से उन चैत्यों का भाग्य मान गुणगान करूँ।
अशुद्धियों को शीघ्र मिटाकर विशुद्धियों का पान करूँ ॥१७॥

भवनवासियों के भवनों में फैली वैभव की महिमा।
नहीं बनाई, बनी आप हैं आभा वाली हैं प्रतिमा।
प्रणाम उनको भी मैं करता सादर सविनय सारों से।
पहुंचा देवें पंचमगति को तारे मुझको क्षारों से॥ १८॥

यहाँ लोक में विद्यमान हैं जितने अपने आप बने।
और बनाये चैत्य अनेकों भविक जनों के पाप हने।
उन सब चैत्यों को वन्दूँ मैं बार बार संयत मन से।
बार-बार ना एक-बार बस आप भरूँ अक्षय धन से॥१९॥

व्यन्तरदेवों के यानों में प्रतिमा गृह है भास्वर हैं।
संख्या की सीमा से बाहर चिर से हैं अविनश्वर हैं।
सदा हमारे दोषों के तो वारण के वे कारण हों।
ताकि दिनों दिन उच्च-उच्चतर चारित का अवधारण हो॥२०॥

ज्योतिषदेव विमानों में भी रहे जिनालय हैं प्यारे।
कितनी संख्या कही न जाती अनगिन माने हैं सारे।
विस्मयकारी वैभव से जो भरे हुये हैं अघहारी।
उनको भी हो वन्दन अपना, वन्दन हो शिव सुखकारी॥ २१॥

वैमानिक देवों के यानों में भी जिन की प्रतिमा हैं।
जिन की महिमा कही न जाती चम-चम-चमकी द्युतिमा हैं।
सुरमुकटों की मणि छवियाँ वे जिनके पद में बिम्बित हैं।
उन्हें नमूँ मैं सिद्धि लाभ हो गुणगण से जो गुम्फित हैं॥ २२॥

उभय सम्पदा वाले जिनका वर्णों से ना वर्णन हो।
अरि-विरहित अरहंत कहाते जिनबिम्बों का अर्चन हो।
यश: कीर्ति की नहीं कामना कीर्तन जिन का किया करूँ।
कर्मास्रव का रोकनहारा कीर्तन करता जिया करूँ॥ २३॥

महानदी अरहन्त देव हैं अनेकान्त भागीरथ है।
भविकजनों का अघ धुलता है यहाँ यही वर तीरथ है।
और तीर्थ में लौकिक जो है तन की गरमी है मिटती।
वही तीर्थ परमार्थ जहाँ पर मन की भी गरमी मिटती॥२४॥

लोकालोका-लोकित करता दिव्यबोध आलोक रहा।
प्रवाह बहता अहोरात यह कहीं रोक, ना टोक रहा।
जिसके दोनों ओर बड़े दो विशाल निर्मल कूल रहे।
एक शील का दूजा व्रत का आपस में अनुकूल रहे॥ २५॥

धर्म शुक्ल के ध्यान धरे हैं राजहंस ऋषि चेत रहे।
पंच समितियाँ तीन गुप्तियाँ नाना गुणमय रेत रहे।
श्रुताभ्यास की अनन्य दुर्लभ मधुर-मधुर धुनि गहर रही।
महातीर्थ की मुझ बालक पर रहा रहे नित महर सही॥ २६॥

क्षमा भंवर है जहाँ हजारों यति ऋषि मुनि मन सहलाते।
दया कमल हैं खुले खिले हैं सब जीवों को महकाते।
तरह-तरह के दुस्सह परिषह लहर-लहर कर लहराते।
ज्ञानोदय के छन्द हमें यों ठहर-ठहर कर कह पाते॥ २७॥

भविक व्रती जन नहीं फिसलते राग रोष शैवाल नहीं।
सार रहित हैं कषाय तन्मय फेनों का फैलाव नहीं।
तथा यहाँ पर मोह मयी उस कर्दम का तो नाम नहीं।
महाभयावह दुस्सह दुख का मरण-मगर का काम नहीं॥ २८॥

ऋषि पति मृदुधुनि से थुति करते श्रुत की भी दे सबक रहे
जहाँ लग रहा श्रवण मनोहर विविध विहंगम चहक रहे।
घोर - घोरतर तप तपते हैं बने तपस्वी घाट रहे।
आस्रव रोधक संवर बनता बंधा झर रहा पाट रहे॥ २९॥

गणधर, गणधर के चरणों में ऋषि यति मुनि अनगार रहे।
सुरपति नरपति और और जो निकट भव्यपन धार रहे।
ये सब आकर परम-भक्ति से परम तीर्थ में स्नान किये।
पंचम युग के कलुषित मन को धो धोकर छविमान किये॥ ३०॥

नहीं किसी से जीता जाता अजेय है गम्भीर रहा।
पतितों को जो पूत बनाता परमपूत है क्षीर रहा।
अवगाहन करने आया हूँ महातीर्थ में स्नान करूँ।
मेरा भी सब पाप धुले बस यही प्रार्थना दान करूँ॥ ३१॥

नयन युगल क्यों लाल नहीं हैं? कोप अनल को जीत लिया।
हाव - भाव से नहीं देखते! राग आपमें रीत गया।
विषाद-मद से दूर हुये हैं प्रसन्नता का उदय रहा।
यूँ तव मुख कहता-सा लगता दर्पण-सम है हृदय रहा॥ ३२॥

निराभरण होकर भासुर हैं राग - रहित हैं अघहर हैं।
कामजयी बन यथाजात बन बने दिगम्बर मनहर हैं।
निर्भय हैं सो बने निरायुध मार - काट से मुक्त हुये।
क्षुधा रोग का नाश हुआ है निराहार में तृप्त हुये॥ ३३॥

अभी खिले हैं नीरज चन्दन-सम घम-घम-घम-वासित है।
दिनकर शशिकर हीरक आदिक शतवसु लक्षण भासित हैं।
दश-शत रवि-सम भासुर फिर भी आँखें लखती ना थकती।
दिव्यबोध जब जिन में उगता देह दिव्यता यूँ जगती।
बाल बढ़े नाखून बढ़े ना मलिन धूलि आ ना लगती॥ ३४॥

शिवपथ में हैं बाधक होते मोह - भाव हैं राग घने।
जिनसे कलुषित जन भी तुम को लखते वे बेदाग बने।
किसी दिशा से जो भी देखे उसके सम्मुख तुम दिखते।
शरदचंद्र-से शान्त धवलतम संत सुधी जन यूँ लिखते॥ ३५॥

सुरपति मुकुटों की मणिकिरणें झर झुर झर झुर करती हैं
पूज्यपाद के पदपद्मों को चूंम रही मन हरती हैं।
वीतराग जिन! दिव्य रूप तव सकल लोक को शुद्ध करे।
अन्ध बना है कुमततीर्थ में शीघ्र इसे प्रतिबुद्ध करे॥ ३६॥

मानथंभ सर पुष्पवाटिका भरी खातिका शुचि जल से।
स्तूप महल बहु कोट नाट्यगृह सजी वेदियां ध्वज-दल से।
सुर तरु घेरे वन उपवन है और स्फटिक का कोट लसे।
नर सुर मुनि की सभा पीठिका-पर जिनवर हैं और बसे।
समवसरण की ओर देखते पापताप का घोर नसे॥ ३७॥

क्षेत्र-पर्वतों के अन्तर में क्षेत्रों मन्दरगिरियों में।
द्वीप आठवां नन्दीश्वर में और अन्य शुभ पुरियों में।
सकल-लोक में जितने जिन के चैत्यालय हैं यहाँ लसे।
उन सबको मैं प्रणाम करता मम मन में वे सदा बसे॥ ३८॥

बने बनाये बिना बनाये यहाँ धरा पर गिरियों में।
देवों राजाओं से अर्चित मानव निर्मित पुरियों में।
वन में उपवन में भवनों में दिव्य विमानों यानों में।
जिनवर बिम्बों को मैं सुमरुँ अशुभ दिनों में सुदिनों में॥ ३९॥

जम्बू-धातकि-पुष्क रार्ध में लाल कमल-सम तन वाले।
कृष्ण मेघ-सम शशी कनक-सम नील कण्ठ आभा वाले।
साम्य-बोध चारितधारक हो घातिकर्म को नष्ट किया।
विगत-अनागत-आगत जिनको नमूँ नष्ट हो कष्ट जिया॥ ४०॥

रतिकर रुचके चैत्य वृक्ष पर औ दधिमुख अंजन भूधर-
रजत कुलाचल कनकाचल पर वृक्ष शाल्मली-जम्बू पर।
इष्वाकारों वक्षारों पर व्यन्तर - ज्योतिष सुर जग में।
कुण्डल मानुषगिरि वर-प्रतिमा नमूँ उन्हें अन्तर जग में॥ ४१॥

सुरासुरों से नर नागों से पूजित वंदित अर्चित हैं।
घंटा तोरण ध्वजादिकों से शोभित बुधजन चर्चित हैं।
भविक जनों को मोहित करते पाप-ताप के नाशक हैं।
वन्दूँ जग के जिनालयों को दयाधर्म के शासक हैं॥ ४२॥

पूज्य चैत्य सद्भक्ति का करके कायोत्सर्ग।
आलोचन उसका करूँ ! ले प्रभु! तव संसर्ग॥ ४३॥

अधोलोक में ऊध्र्वलोक में मध्यलोक में उजियारे।
बने बनाये हैं बनवाये चैत्य रहे अनगिन प्यारे।
देव चतुर्विध अपने-अपने उत्साहित परिवार लिए।
पर्वों विशेष तिथियों में औ प्रतिदिन शुभ शृंगार किए॥ ४४॥

दिव्यगन्ध ले दिव्य दीप ले दिव्य दिव्य ले सुमनलता।
दिव्य चूर्ण ले दिव्य न्हवन ले दिव्य दिव्य ले वसन तथा।
अर्चन पूजन वन्दन करते सविनय करते नमन सभी।
भाग्य मानते पुण्य लूटते बने पाप का शमन तभी॥ ४५॥

मैं भी उन सब जिन चैत्यों को भरतखण्ड में रहकर भी।
पूजूँ वंदूं अर्चन करलूँ नमन करूँ सर झुककर ही।
कष्ट दूर हो कर्मचूर हो बोधिलाभ हो सद्गति हो
वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥ ४६॥

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