भक्तामर स्त्रोत (भाषा अनुवाद रवीन्द्र कुमार जैन) | Bhaktamar Stotra (Translated by Ravindra Kumar Jain)

भक्तअमर नित करते स्तवन शीश झुका प्रभु चरणो मे
पाप कर्म के क्षय करने को जैसे उदित सूर्य नभ मे
स्तुति करता रिषव देव की हर्षित हेाकर के मन मे
भव समुद्र से पार करन को अवलम्बन हे भववन मे।।१।।

सकल ज्ञान मय तत्व बोध के ज्ञानी ज्ञाता योगी जन
आदि जिनेश्वर प्रभु को करते सुर नर बारम्बार नमन
प्रथम जिनेश्वर आदि प्रभु को मंद बुद्धि मे करू स्तवन
कर्म काट भव वन से छूटे ब्रम्ह स्वरूपी हो भगवन ।।२।।

पूज्यनीय हो देवो से प्र्रभु फिर भी भक्ति करन के काज
अल्प बुद्धि मे करू स्तुति जगजन की तज कर के लाज
देख चन्द्र प्रतिबिम्ब नीर मे चाहे उसको कोन पुमान
किन्तु शिशु ही पाना चाहे देख उसी को चन्द्र समान।।३।।

उज्जवल चन्द्र कान्ति सम दिखते वीतराग तुम आभावान
सुर नर नित ही करते रहते भक्ति सहित प्रभु के गुणगान
बुद्धि हीन होकर के फिर भी स्तुति करने को तैयार
तीव्र वेग के वात वलय मे कोन करेगा सागर पार ।।४।।

ज्ञान हीन मे शक्ति रहित हू स्तुति करने को तैयार
जैसे सन्मुख सिंह उपस्थित मृगी हुई बालक बश प्यार
तत्सम भक्ति करू आपकी शक्ति रहित भक्ति वाशात
क्या हिरणी नही आती सन्मुख निज शिशु प्राणोके रक्षार्थ ।।५।।

बुद्धि हीन हो करके प्रभु जी भक्ति करन का हे उत्साह
ज्ञानी जन गर हंसी करे तो मुझे नही उनकी परवाह
देख वसंत मे आम्र वौर को कोयल खूब चहकती है
आम्र वौर के कारण जैसे मीठे शब्द कुहकती है ।।६।।

जिनवर की भक्ति करने से पाप कर्म कट जाते है
सच्चे मन से भक्ति करते जनम सफल कर जाते है
मावस जैसा व्याप्त लोक मे गहन भयंकर तम का पाप
नभ मे रवि उदित होने से भग जाता हे अपने आप ।।७।।

आदि प्रभु की भक्ति करन को मंद बुद्धि मे हूँ तैयार
तुम प्रभाव से पुरी होगी विद्वजनो का पाकर प्यार
कमलपत्र पर जल की बूंदे जैसी दिखती आभावान
साथ हुये की महिमा है यह बूंद नही होती गुणवान ।।८।।

जिनवर की स्तुति से कटते जनम जनम के संचित पाप
भगवन की महिमा सुन करके भग जाते अपने ही आप
अपनी किरणे फेक दिवाकर दूर रहा करता नभ मे
तिमिर नष्ट हो जाता हे और कमल खिला करते जलमे ।।९।।

तीन लोक के आभूषण प्रभु तुम ही हो जग के आधार
तुम गूण की महिमा जो गाते हो जाते हे भव से पार
नही अचरज हे भक्ति आपकी जो करता हे हे स्वामी
निज सम आप बना लेते है आश्रित जन को हे नामी ।।१०।।

विना पलक के झपक लिये ही रूप आपका अति सुन्दर
अन्य किसी मे नही होता हे ऐसा हे मन के अन्दर
पूर्णमासी की किरणो जैसा पय जो मीठा पीते हे
खारा पानी पीने के हित क्या वह जीवन जीते है ।।११।।

तीन लोक मे अद्वितीय हो अपलक निरखे तुम्हे नयन
लीन हुये जग के परमाणु वीतराग को करू नमन
हे त्रिभुवन को जानन हारे आलोकिक हे तेरा ज्ञान
मुकुट सरीखे उध्र्व हुये हो तुम जैसा नही और महान ।।१२।।

सुर नर अहिपति के मन हरता रूप आपका अति सुन्दर
ऐसी उपमा नही किसी मे तीनो लोको के अन्दर
पूनम का वह पुर्ण चन्द्रमा सूर्य सामने फीका जान
इसकी उपमा करे आपसे ऐसा सोचे कौन पुमान ।।१३।।

कान्ति युक्त हो शशि कलामय विचरण करता है उन्मुक्त
तेरे गुण भी फैले रहते निज स्वभाव से होकर युक्त
जिनवर के आश्रित जन जग मे फैले रहते चारो ओर
कौन रेाक सकता हे उनको भक्ति करते भाव विभोर ।।१४।।

देवलोक की कन्याये भी नही ला सकती तनिक विकार
नही अचरज हे इसमे होता कर न सका काम अधिकार
महा प्रलय की तेज पवन से पर्वत सब गिर जाते है
तीव्र पवन से शिखर मेरू तो कभी नही हिल पाते है ।।१५।।

तीनो लोक झलकते जिसमे कान्ति स्वरूपी केवल ज्ञान
प्रलय काल की तीव्रवायु भी बुझा नही सकती गतिमान
दीप तुम्ही हो जग के उत्तम स्वपर प्रकाशक आतम ज्ञान
पाकर के तुमकिरणज्योति को कर लेते निज का कल्याण ।।१६।।

हे कर्म जयी तुम अस्त न होते ढक सकता नही राहू कभी
रवि को ढक लेता हे बादल तुमसे पीछे रहे सभी
फीका होता रवि का वैभव होता जब प्रभु ज्ञान उजास
सुरज नभ मे उदित हुये से थोडी भू पर होय प्रकाश ।।१७।।

प्रातः नभ मे रवि उदित से अन्धकार का करदे नाश
राहु नही ढक सकते उसको बादल रोके नही प्रकाश
तुम्हे प्रकट हो उत्तम सुन्दर शशिकान्ति सम केवलज्ञान
झलकत तीन लोक हे जिसमे अद्वितीय अतयंत महान ।।१८।।

मुख अति सुन्दर लगे आपका मोह अन्ध का कर दे नाश
दिन मे रवि और रात चन्द्र का तव क्या हो उपयोग प्रकाश
पानी भर के पके धान्य पर नभ मे मेघ हुये घनघोर
मोह तिमिर के क्षय होन पर वाहय प्रकाश न करे विभोर ।।१९।।

महा ज्ञान तेरा हे निर्मल सात तत्व नव द्रव्य उजेश
तुम जैसे नही दिखते जग मे अन्य देवता हे ज्ञानेश
महा मणि होती हे सुन्दर निज प्रकाश से आभावान
कांच खण्ड मे नही होती हे उज्ज्वल शोभा मणि समान ।।२०।।

देख सरागी देव सभी को अब तक उत्तम माना था
वीतराग के दर्शन करके सत्य स्वरूप पहिचाना था
अपने अन्दर लखू आपको मन पंछी खिल जाता है
भव भव मे हो शरण आपकी यही भावना भाता है ।।२१।।

शतक नारिया जनती रहती अपने पुत्रो को चहूँ और
लाल आपसा जनने बाली नारी नही हे कोई और
नभ मे उदित नक्षत्रतारो को धारण करती सभी दिशा
महा कान्ति युक्त तेज रवि को धारण करती पुर्व दिशा।।२२।।

हे देवोत्तम तप के धारक ज्ञानी माने परम पुमान
आप समान अन्य न कोई मोक्ष मार्ग का देता ज्ञान
चलकर प्रभु के मुक्ति मार्ग पर निज स्वभाव मे आते हे
अष्ट कर्म को नष्ट किये फिर सिद्व महापद पाते हे ।।२३।।

दिये बिशेषण ज्ञानी जन ने शिव शंकर आदि भगवंत
ब्रम्हा ईश्वर हे परमेश्वर रूद्र स्वरूप अनंतानंत
योगीश्वर भी कहे आपको एकानेक अनेको नाम
अविनाशी हे भव्य विधाता चरण आपके करू प्रणाम ।।२४।।

पांचो ज्ञान झलकते जिनमे ऐसे बु़द्ध स्वरूपी हो
तीनो लोको के पथ दर्शक ऐसे शेकर रूपी हो
मोक्षमार्ग के तुम्ही प्रणेता कहे विधाता तुम्हे जिनेश
पुरूषो मे तुम प्रथम पुरूष हो ज्ञानी माने तुम्हे गणेश ।।२५।।

पीडा हरते तीन लोक की प्रथम जिनेश्वर तुम्हे नमन
पृथ्वी तल के निर्मल भूषण रिषव जिनेश्वर तुम्हे नमन
तीन लोक के हे परमेश्वर करता बारम्बार नमन
भव सागर को शोषित करते आदि जिनेश्वर तुम्हे नमन ।।२६।।

हे भक्तो के ईश्वर भगवन सद् गुण आश्रय पाते हे
तुमसे उत्तम अन्य न कोई जग मे हम लख पाते हे
दोषी जन मे दोष समाये तुम निर्मल हो निश्चय मान
स्वपन मात्र मे दोष न दिखता आत्म स्वरूपी हे भगवान ।।२७।।

तरू अशोक हे उॅचा सुन्दर समवशरण मे शोभावान
सिहाँसन पर आप विराजे उलसितरूप हे स्वर्ण समान
नभ मे काले मेघ मध्य मे दिनकर दमकत आभावान
शोभित होते सिंहासन पर समवशरण मे हे भगवान ।।२८।।

उदयाचल के उदित सूर्य से तृप्त हुये भविजन के मन
मणि मुक्ताओ से सज्जित हे स्वर्ण स्वरूपी सिहांसन
साने जैसे रंग से शोभित उस पर तुम कमनीय वदन
उदित हुये सूरज सम लगता बीतराग का सिहांसन ।।२९।।

अमरो द्वारा प्रभु के उपर ढोरे जाते श्वेत चमर
सोने जैसी तन की कान्ति पूजे प्रभु को नित्य अमर
मेरूशिखर पर जैसे गिरती निर्मल स्वच्छ श्वेत जलधार
ऐसे श्वेत चमर हे दिखते जिनकी शोभा अपरम्पार।।३०।।

तीन छत्र सिर शोभित सुन्दर मणि मुक्ताओ से परिपूर्ण
शशिकान्ति सम लगते उज्जवल कर्म कालिमा कर दे चूर्ण
तीन लोक के स्वामी पन को सबसे प्रगट करे अभिराम
ऐसी शोभा सुन्दर जिनकी सुर नर जिनको करे प्रणाम ।।३१।।

चहूँ दिशाये गूंज रही हे जैन धर्म की जय जय कार
सत्य धर्म को प्रगट करे जो जैन धर्म हे एकाकार
जैन धर्म का यश फहराते तत्वो का होता गुणगान
नभ मे सुर द्वंदभी बजाते ऐसे हे जिनदेव महान ।।३२।।

मन्द पवन से नभ के द्वारा वारि सुगंधित झरता हे
पुष्प मनोहर कल्प बृक्ष के दृश्य मनो को हरता है
पारिजात सुन्दर संजातक हे मंदार नमेय सुन्दर
पंक्ति सम सुन्दर लगते हे जैसे पक्षी रहे विचर।।३३।।

रवि की सुषमा के सम सुन्दर उज्जवल दिखता आभावान
चन्द्रकान्ति जिसमे अंकित हो अक्षय भामण्डल गुण खान
जिसके सन्मुख स्मित होती तीन लोक की महिमा जान
फीके पडते सकल पदारथ ऐसा भामण्डल हे महान ।।३४।।

पुण्य पाप और रत्नात्रय का भविजन को देती उपदेश
सात तत्व अनेकांत सिखाती ओंकार मय ध्वनि विशेष
दिव्य ध्वनि जिनवर की होती गुण पर्यय सब जाने ज्ञान
भाषा अपनी मे सब समझे करते हे निज का कल्याण ।।३५।।

भव्य जनो के भाग्य उदय से जिनवर का जब होय गमन
देव बिछाते हे कमलो को स्वर्ण कान्ति सम लगे सुमन
कोष चार सीमा है जिसकी ऐसे कमल उगाते देव
भक्तिबश होकरके भवि सुर अतिशय युक्त करे नित सेव।।३६।।

समवशरण सम और न सुन्दर धर्म देशना वैभव वान
ऐसा वैभव कही न दिखता बतलाते हे सभी प्रमान
दिनकर की आभा को देखो अन्धनाश कर करे प्रकाश
वैसी क्या नक्षत्र प्रकीर्णक कर सकते है कभी उजास।।३७।।

लाल लाल आँखे हो जिसकी क्रोध अग्नि मे हो उन्मत्त
ऐरावत सम भीम काय हो मद मे होकर के मद मस्त
गज ऐसा उदण्ड भयंकर तव आश्रित सन मुख आवे
देख सामने ऐसे गज को भक्त कभी न भय खावे ।।३८।।

क्रोध अग्नि मे तप्त हुआ हो छत विछत करदे गज भाल
भीम समान करे गर्जना क्रोधित सिंह हुआ विकराल
सन्मुख ऐसे सिंह के आते हो जाते हे होश विहीन
ऐसे जन का कुछ न विगडे जो जिनेन्द्र भक्ति मे लीन ।।३९।।

प्रलय सरूपी महा अग्नि जो करदे पल मे सब कुछ नाश
ज्वाला मुखि सी दिखे भयंकर मानो जग का करे विनाश
जिन भक्ति के निर्मल जल को जो जन रखते अपने पास
नही विगडता कुछ भी उनका निज मे होवे ज्ञान प्रकाश ।।४०।।

अहि जो काला दिखे भयंकर उन्नत फन करके विकराल
लाल लाल आँखे हे जिसकी दिखने मे जो हो विकराल
नित प्रति करते जो जन भक्ति मन मे डर नही लाते है
विन शंका के वह सब प्राणी अहि सम कर्म खिपाते है ।।४१।।

महा समर की रण भुमि मे गूंजे शब्द महा भयवान
महा पराक्रम धारि नृप भी रण वांकुर होवे वलवान
जो जन भक्ति करे आपकी वह होते रण मे जयवंत
जैसे नभ मे उदित सूर्य से अंधकार का होवे अंत ।।४२।।

खूनी नदिया वहे भयंकर गज के कटते उन्नत भाल
शत्रु पक्ष के याद्धा जिसमे तैरे दिखे महा विकराल
करे पराजित क्षण मे उनको चरण कमल रज पाते हे
जिन भक्ति पर जो है आश्रित कर्मकाट शिव जाते हे।।४३।।

महा भयंकर सिंधु हे जिसमे मगर मच्छ होवे विकराल
अग्नि जैसी चंचल लहरे उस पर होवे पोत विशाल
चले भयंकर पवन वेग से भय पावे उसमे असवार
तुम भक्ति को भविजन गाकर हेा जाते हे सागर पार।।४४।।

महा जलोदर पीडित प्राणी दुःखी दशा दर्शाती है
ऐसे पीडित प्राणी जन को चिंता मृत्यु सताती है
जो जन तेरे पद पंकज की रज को शीश लगाते है
कामदेव सम सुन्दर तन को निश्चित ही पा जाते है।।४५।।

पुरे तन पर पडी वेडिया सांकल बांधी हे कस कर
अग्र भाग की रगड जगे से धार लगी हे लहु वहकर
मंत्र मुग्ध एकाग्र चित्त से जो जन नाम जपे तेरा
बंधन सब खुल जाबे निश्चित इस जग मे न हो फेरा ।।४६।।

पवन युद्ध सिंह वन अग्नि से सांप सिंधु जलोदर आदि
भयकारी अति तीव्र भयंकर उपजे नही कोई भी व्याधि
पाठ करे नित जो जन इसका भव सागर तर जाता है
तत्व अभ्यासी स्वाध्याय सह मुक्ति वधु वर जाता है।।४७।।

भक्तिमय अति भक्ति भाव से प्रभु गुण सुमन पिरोये है
विविध वर्ण के पुष्प लगा कर भक्ति मयी संजोये है
श्रद्धा पूर्वक जो जन पढता मन भक्ति मे लगाता है
मान तुंग सम कर्म काट कर मोक्ष लक्ष्मी पाता है ।।४८।।

- भाषा अनुवाद रवीन्द्र कुमार जैन

Image source:
'Chand Khedi temple - Mahavir Swami Idol' by Pratyk321, Image compressed, is licensed under CC BY-SA 4.0

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