भक्तामर स्तोत्र (मुनि श्री विमर्शसागरजी महाराज द्वारा रचित) | Bhaktamar stotra (By Muni Shree Vimarshsagarji Maharaj)

आदिनाथ स्तोत्र महान - जो नर गाये रे।
घाति- अघाति-सब कर्म नशाये रे॥
आदिनाथ प्रभु गुण स्तवन - जो नर गाये रे।
जीवन में उसके दु:ख ना रह पाये रे॥

भक्तामर नत मुकुट मणि, झिलमिल होती लड़ी-लड़ी।
ज्ञान ज्योति प्रगटी टूटे, पाप कर्म की कड़ी-कड़ी॥
भवसागर में गिरते जन, कर्मभूमि का प्रथम चरण।
आदिनाथ प्रभुवर जिनके, चरण युगल हैं आलम्बन॥
सम्यक् वन्दन कर मनवा हर्षाये रे॥ १॥

द्वादशांग का जो ज्ञाता, तत्त्वज्ञान पटु कहलाता।
मन-मोहक स्तुतियों से, सुरपति प्रभु के गुण गाता॥
त्रिभुवन चित्त लुभाऊँगा, मैं भी प्रभु गुण गाऊँगा।
आदिनाथ तीर्थेश प्रथम, निश्चय उनको ध्याऊँगा॥
प्रभु की भक्ति ही संकल्प जगाये रे॥ २॥

देव-सुरों से है पूजित, पादपीठ जो अतिशोभित।
तज लज्जा स्तुति गाने, तत्पर हूँ मैं बुद्धि रहित॥
चन्द्रबिम्ब जल में जैसे, अभी पकड़ता हूँ वैसे।
बालक ही सोचा करता, विज्ञ मनुज सोचे कैसे॥
बालक हूँ फिर भी मन तो उमगाये रे॥ ३॥

चंद्रकांति समगुण उज्ज्वल, कहने सुरपति में ना बल।
हे गुणसागर! कौन पुरुष, कहने को हो सके सबल॥
प्रलयकाल की वायु प्रचण्ड, नक्र-चक्र हों अति उद्दण्ड।
ऐसा सिंधु भुजाओं से, पार करेगा कौन घमण्ड॥
प्रभु तेरी भक्ति नौका बन जाये रे॥ ४॥

भक्ति भाव उर लाया हूँ, स्तुति करने आया हूँ।
शक्ति नहीं मुझ में फिर भी, शक्ति दिखाने आया हूँ॥
हिरणी वन को जाती है, सिंह सामने पाती है।
निज शिशु रक्षा हेतु मृगी, आगे लडऩे आती है॥
प्रीतिवश हिरणी कत्र्तव्य निभाये रे॥ ५॥

मैं अल्पज्ञ हूँ अकिंचन, हँसी करें प्रभु विद्वतजन।
करती है वाचाल मुझे भक्ति आपकी हे स्वामिन्॥
जब बसन्त ऋतु आती है, कोयल कुहु-कुहु गाती है।
सुन्दर आम्र मंजरी ही, तब कारण बन जाती है॥
प्रभु तेरी मूरत मेरे मन को भाये रे॥ ६॥

नाथ! आपके संस्तव से, भवि जीवों के भव-भव से।
बँधे हुए जो पापकर्म, क्षण भर में क्षय हों सबके॥
भँवरे जैसा तम काला-जग को अंधा कर डाला।
ऐसा तम रवि किरणों ने-आकर तुरंत मिटा डाला॥
प्रभु तेरी भक्ति अघकर्म मिटाये रे॥ ७॥

अल्पज्ञान की धारा है, स्तुति को स्वीकारा है।
चित्त हरे सत्पुरुषों का, नाथ! प्रभाव तुम्हारा है॥
नलिनी दल पर बिन्दु जल, लगता जैसे मुक्ताफल।
है प्रभाव नलिनीदल का, कांतिमान कब होता जल॥
नलिनीदल वा जल अपने में समाये रे॥ ८॥

दूर रहे प्रभु गुण स्तवन, दोष रहित जो अति पावन।
नाथ आपकी नाम कथा, पापों का करती खण्डन॥
दिनकर दूर रहा आये, क्षितिज लालिमा छा जाये।
सरोवरों में कमलों को, प्रभा प्रफुल्लित कर जाये॥
शुभनाम तेरा होंठो पे आये रे॥ ९॥

आदिनाथ स्तोत्र महान जो नर गाये रे।
जगन्नाथ! हे जगभूषण! जो भी प्राणी गाता गुण॥
इसमें क्या आश्चर्य प्रभो! होता है तुम सम तत्क्षण।
लाभ ही क्या उस स्वामी से, वैभवधारी नामी से।
निज सेवक को जो निजसम, करे नहीं अभिमानी से॥
तुझसा स्वामी ही सेवक को भाये रे॥ १०॥

अपलक रूप निहार रहा, दर्शनीय संतोष महा।
तुझसा देव न देवों में, रागद्वेष की खान कहा॥
क्षीरसिन्धु का मीठा जल, सुन्दर शशि सम कांति धवल।
पीकर, क्यों पानी चाहे, लवण सिन्धु का खारा जल॥
तुझ बिन प्रभु मुझको कोई और न भाये रे॥ ११॥

देख लिए हमने त्रिभुवन, तुझसा सुन्दर न भगवन्।
प्रशम कांतिमय अणुओं से, रचा गया प्रभु! तेरा तन॥
निश्चित वे अणु थे उतने, नाथ! देह में हैं जितने।
अन्य देव का, प्रभु! तुमसा, रूप कहाँ देखा किसने॥
तेरी छबि मेरे नयनों में समाये रे॥ १२॥

विजित अखिल उपमाधारी, सुरनर उरग नेत्रहारी।
कहाँ आपका मुखमण्डल, शोभा जिसकी अति प्यारी॥
कहाँ कलंकी वह राकेश, निष्प्रभ हो जब आये दिनेश।
ढाक पुष्प सम पाता क्लेश, न खुशबू न कांति विशेष॥
मनहर मुख की छबि कभी दूर न जाये रे॥ १३॥

शुभ्र कलाओं से शोभित, पूनम का शशि मन मोहित।
नाथ! आपके उज्ज्वल गुण, करें लोकत्रय उल्लंघित॥
नाथ! आप जिसके आधार, विचरें वे इच्छा अनुसार।
तीन लोक में रोक सके, है किसको इतना अधिकार॥
प्रभु तेरी शरणा भवपार लगाये रे॥ १४॥

स्वर्ग अप्सरायें आईं - नृत्यगान कर शर्माईं।
क्या आश्चर्य तनिक मन में, गर विकार न कर पाईं॥
प्रलयकाल की वायु चले, पर्वत, भू से आन मिले।
किन्तु सुमेरु शिखर भी क्या, प्रलय वायु से कभी हिले॥
प्रभु तेरे मन का कोई पार न पाये रे॥ १५॥

जिसमें धूम न बाती हो, तेल न जिसका साथी हो।
हे अखंड! हे अविनाशी! तीनों लोक प्रकाशी हो॥
प्रलय काल की वायु चले, मणिज्योति कब हिले-डुले।
जगत्प्रकाशी दीप अपूर्व, ज्ञान ज्योति भी नित्य जले॥
प्रभु तेरी ज्योति मेरा दीप जलाये रे॥ १६॥

नाथ! आपकी वो महिमा, सूरज की न कुछ गरिमा।
युगपत् लोक प्रकाशी हो, रवि रहता सहमा-सहमा॥
आप सूर्य सम अस्त नहीं राहू द्वार ग्रस्त नहीं।
मेघ तेज को छिपा सकें, ऐसा बंदोबस्त नहीं॥
प्रभु तेरी भक्ति मिथ्यात्व नशाये रे॥ १७॥

राहू कभी नहीं ग्रसता, कृष्ण मेघ से न दबता।
सदा उदित रहने वाला, मोह महातम को दलता॥
अहा! मुखकमल अतिअभिराम, अद्वितीय शशि बिम्ब लला।
लोकालोक प्रकाशी है, ज्ञान आपका हे गुणधाम॥
स्तुति प्रभु तेरी सम्यक्त्व जगाये रे॥ १८॥

मुखशशि का जब दर्श किया, नाथ! तिमिर द्वय नाथ दिया।
दिन में रवि से, रजनी में-शशि से नाथ! प्रयोजन क्या॥
धान्य पक चुका लगे ललाम, स्वर्णिम खेत हुए अभिराम।
जल को लादे झुके हुए, नाथ! बादलों का क्या काम॥
प्रभु आप जैसी हम फसल उगाये रे॥ १९॥

पूर्ण रूप से है विकसित, ज्ञान आप में ही शोभित।
हरि हरादि देवों में क्या, हो सकता जो नित्य क्षुभित॥
तेज महामणि में जैसा, नाथ! आप में भी वैसा॥
सूर्य किरण से जो दमके, काँच शकल में न वैसा।
केवलज्ञानी ही अज्ञान नशाये रे॥ २०॥

हरि-हरादि का भी दर्शन, मान रहा अच्छा भगवन्।
उन्हें देखकर अब तुझमें, हुआ पूर्ण संतोषित मन॥
प्रभु तेरे दर्शन से क्या? साथ चाहता मन तेरा।
इस भूमण्डल पर कोई, देव कभी-भी फिर मेरा॥
जन्मों-जन्मों में न चित्त लुभाये रे॥ २१॥

आदिनाथ स्तोत्र महान, जो नर गाये रे।
सौ-सौ नारी माँ बनतीं, सौ-सौ पुत्रों को जनतीं।
नाथ! आप सम तेजस्वी, पुत्र न कोई जन्म सकीं॥
नभ में अगणित तारागण, सभी दिशा करती धारण।
सूर्य उदित होता जिससे, पूर्व दिशा ही है कारण॥
माता मरूदेवी धन्य-धन्य कहाये रे॥ २२॥

सूरज सम तेजस्वी हो, परम पुमान यशस्वी हो।
मुनिजन कहते तमनाशक, निर्मल आप मनस्वी हो॥
नाथ! आपको जो पाते, मृत्युञ्जयी वो कहलाते।
किन्तु आप बिन शिवपथ का, मार्ग न कोई बतलाते॥
जो तुमको ध्याये तुम सम बन जाये रे॥ २३॥

आद्य! अचिन्त्य! असंख्य! अनंग ! अक्षय! कहें सन्त!
विदित योग! विभु! योगीश्वर! ब्रह्मा! कहते हे भगवन्त॥
कोई कहता ज्ञान स्वरूप, नाथ! आपको अमल अनूप।
कोई कहता एक! अनेक! अविनाशी! इत्यादिक रूप॥
नाना नामों से तेरी महिमा गाये रे॥ २४॥

अमर-पूज्य केवलज्ञानी, अत: बुद्ध हो हे ज्ञानी।
त्रिभुवन में सुखशान्ति रहे, अत: तुम्हीं शंकर ध्यानी॥
मोक्षमार्ग विधि बतलाते, अत: विधाता कहलाते।
व्यक्त किया पुरुषार्थ अत: पुरुषोत्तम जन-जन गाते॥
प्रभु तुमको ब्रह्मा, शंकर विष्णु बताये रे॥ २५॥

त्रिभुवन का दु:ख करें हरण, अत: आपको नमन-नमन।
क्षितितल के निर्मल भूषण, नाथ! आपको नमन-नमन॥
हे परमेश्वर त्रिजगशरण, सदा आपको नमन-नमन।
भववारिधि करते शोषण, अत: आपको नमन-नमन॥
प्रभु तेरा वन्दन, चन्दन बन जाए रे॥ २६॥

हे मुनीश! इन नाम सहित, गणधर सन्तों से अर्चित।
इसमें क्या आश्चर्य प्रभो! हुए सर्वगुण तव आश्रित॥
दोष स्वप्न में दूर अरे, अहंकार में चूर अरे।
आश्रय पा कामीजन में, इठलाते भरपूर अरे॥
इसमें क्या विस्मय, वो पास न आए रे॥ २७॥

शुभ अशोक तरू अति उन्नत, कंचन साभव तन शोभित।
अंधकार को चीर रहीं, उध्र्वमुखी किरणें विकसित॥
जैसे दिनकर आया हो, मेघों बीच समाया हो।
किरण जाल फैलाकर के, स्वर्णिम तेज दिखाया हो॥
सूरत के आगे सूरज शर्माये रे॥ २८॥

मणि किरणों से हुआ न्हवन, जगमग-जगमग सिंहासन।
नाथ! आपका कंचन सा, उस पर परमौदारिक तन॥
उदयाचल का तुंग शिखर, रश्मि लिए आया दिनकर।
ऐसा शोभित होता है, सिंहासन पर तन प्रभुवर॥
तन की यह आभा नजरों को बुलाये रे॥ २९॥

कुन्दपुष्प सम श्वेत चँवर, इन्द्र ढुराते हैं तन पर।
स्वर्णमयी काया प्रभुजी, लगती मनहर अतिसुन्दर॥
कनकाचल का तुंग शिखर, शुभ्र ज्योत्सना सा निर्झर।
झर-झर, झर-झर झरता हो, शोभित चौंसठ शुभ्र चँवर॥
प्रभु की सेवा में सुरलोक भी आये रे॥ ३०॥

है शशांक सम कांति प्रखर, तीन छत्र शोभित सिर पर।
मणि मुक्ता की आभा से, झिलमिल-झिलमिल हो झालर॥
रवि का दुद्र्धर प्रखर प्रताप, रोक दिया है अपने आप।
प्रगट कर रहे छत्रत्रय, त्रिभुवन के परमेश्वर आप॥
ईशान इन्द्र आकर महिमा दिखलाए रे॥ ३१॥

मधुर-गूढ़, उन्नत स्वर में, दुन्दुभि बजता नभपुर में।
दशों दिशाएँ गूँज रहीं, धूम मची है सुरपुर में॥
तीन लोक के भविजन को, बुला रहा सम्मेलन को।
धर्मराज की हो जय-जय, घोष करे रजनी-दिन को॥
तीनों लोकों में यश ध्वज फहराए रे॥ ३२॥

पारिजात सुन्दर मन्दार-सन्तानक, नमेरू सुखकार।
कल्पवृक्ष के ऊध्र्वमुखी-पुष्प अहा! गंधोदक धार॥
वर्षा नित होती रहती, मन्द पवन संग-संग बहती।
मानों दिव्य वचन माला, प्रभु की नभ से ही गिरती॥
प्रभु ऐसी शोभा कहीं नजर न आए रे॥ ३३॥

नाथ! आपका भामण्डल, शोभित जैसे सूर्य नवल।
जीत रहा है रजनी को, चंद्रकांति सम हो शीतल॥
त्रिभुवन चित्त लुभाते जो, कांतिमान कहलाते जो।
भामण्डल की आभा से, लज्जित हो शर्माते वो॥
भामण्डल भवि के, भव सात दिखाए रे॥ ३४॥

स्वर्ग-मोक्ष पथ बतलाती, सत्य धर्म के गुण गाती।
त्रिभुवन के भवि जीवों को, विशद अर्थ कर दिखलाती॥
नाथ! दिव्यध्वनि खिरती है, सदा अमंगल हरती है।
महा-लघु भाषाओं में, स्वयं परिणमन करती है॥
प्रभु की दिव्यध्वनि भवरोग मिटाए रे॥ ३५॥

नूतन विकसित स्वर्ण कमल, कांतिमान नख अतिनिर्मल।
फैल रही आभा जिनकी, सर्वदिशाओं में उज्ज्वल॥
आप गमन जब करते हैं, सहज कदम जब धरते हैं।
दो सौ पच्चिस स्वर्ण-कमल, विबुध चरणतल रचते हैं॥
नभ में प्रभु तेरा अतिशय दिखलाये रे॥ ३६॥

भूति न त्रिभुवन में ऐसी, धर्मदेशना में जैसी।
प्रातिहार्य वसु समवसरण, अन्य देव में न वैसी॥
अंधकार के हनकर की, जैसी आभा दिनकर की।
वैसी ही आभा कैसे, हो सकती तारागण की॥
तीर्थंकर जैसा ना पुण्य दिखाये रे॥ ३७॥

झर-झर झरता हो मदबल, जिसका चंचल गण्डस्थल।
भ्रमरों के परिगुंजन से, क्रोध बढ़ रहा खूब प्रबल॥
ऐरावत गज आ जाए-भक्त जरा न भय खाए।
नाथ! आपके आश्रय का, जन-जन यह अतिशय गाए॥
प्रभु की भक्ति से, भय भी टल जाए रे॥ ३८॥

चीर दिया गज गण्डस्थल, मस्तक से झरते उज्ज्वल।
रक्त सने मुक्ताओं से, हुआ सुशोभित अवनीतल॥
ऐसा सिंह महा विकराल, बँधे पाँव सा हो तत्काल।
नाथ! आपके चरणयुगल, आश्रय से हो भक्त निहाल॥
प्रभु तेरी भक्ति निर्भयता लाए रे॥ ३९॥

प्रलयकाल की चले बयार, मचा हुआ हो हाहाकार।
उज्ज्वल, ज्वलित फुलिंगों से, दावानल करती संहार॥
जपे नाम की जो माला, नाम मंत्र का जल डाला।
शीघ्र शमन हो दावानल, नाम बड़ा अचरज वाला॥
भक्ति ही ऐसा अचरज दिखलाए रे॥ ४०॥

लाल-लाल लोचनवाला, कंठ कोकिला सा काला।
जिह्वा लप-लप कर चलता, नाग महाविष फण वाला॥
नाम नागदमनी जिसके, हृदय बसी हो फिर उसके।
शंका की न बात कोई, साँप लाँघ जाता हँसके॥
भक्तों को विषधर न कभी डराए रे॥ ४१॥

उछल रहे हों जहाँ तुरंग, गजगर्जन हो सैन्य उमंग।
बलशाली राजा रण में, दिखा रहे हों अपना रंग॥
सूर्य किरण सेना लाता, तिमिर कहाँ फिर रह पाता।
नाम आपका जो जपता, रण में भी ध्वज फहराता॥
प्रभु के भक्तों को, कब कौन हराये रे॥ ४२॥

क्षत-विक्षत गज भालों से, हुआ सामना लालों से।
जल सम रक्त नदी जिसमें, तरणातुर वह सालों से॥
नाथ! जीतना हो दुर्जय, रण में होती शीघ्र विजय।
नाथ! पाद पंकज वन का, लिया जिन्होंने भी आश्रय॥
प्रभु के भक्तों को जय तिलक लगाए रे॥ ४३॥

मगरमच्छ एवं घडिय़ाल, भीमकाय मछली विकराल।
महाभयानक बडवानल, उठती हों लहरें उत्ताल॥
डगमग-डगमग हों जलयान, चीत्कार कर रहे पुमान।
नाम स्मरण से भगवन्, शीघ्र पहुँचते तट पर यान॥
प्रभु की भक्ति से संकट कट जाए रे॥ ४४॥

उपजा महा जलोधर भार, वक्र हुआ तन का आकार।
जीने की आशा छोड़ी, शोचनीय है दशा अपार॥
नाथ! चरण रज मिल जाए, रोग दशा भी ढल जाए।
सच कहता हूँ देह प्रभो! कामदेव सी खिल जाए॥
चरणों की रज भी औषधि बन जाए रे॥ ४५॥

सिर से पैरों तक बन्धन, जंजीरों से बाँधा तन।
हाथ-पैर, जंघाओं से, रक्त बह रहा रात और दिन॥
बंदीजन करलें शुभकाम, नाम मंत्र जप लें अविराम।
नाथ! आपकी भक्ति से, बन्धन भय पाता विश्राम॥
प्रभु की भक्ति से बन्धन खुल जाए रे॥ ४६॥

सर्प, दवानल, गज चिंघाड़, युद्ध, समुद्र व सिंह दहाड़।
नाथ! जलोदर हो चाहे, बन्धन का भय रहे प्रगाढ़॥
नाथ! आपका स्तुतिगान, करता है जो भी मतिमान।
भय भी भयाकुलित होकर, शीघ्र स्वयं होता गतिमान॥
प्रभु की भक्ति से भय भी भय खाये रे॥ ४७॥

गुण बगिया में आये हैं, अक्षर पुष्प खिलाए हैं।
विविध पुष्प चुन भक्ति से, स्तुतिमाल बनाए हैं॥
करे कण्ठ में जो धारण, मनुज रहे न साधारण।
मानतुंग सम मुक्ति श्री, आलिंगित हो बिन कारण॥
प्रभु गुण की महिमा निज गुण विकसाये रे॥ ४८॥

मानतुंग उपसर्गजयी, मानतुंग हैं कर्मजयी।
मानतुंग की अमरकृति, भक्तामर है कालजयी॥
मानतुंग की छाया है, मानतुंग सम ध्याया है।
भक्ति भाव से पद्य रचा, आदिनाथ गुण गाया है॥
भक्ति की शक्ति मानतुंग बताये रे॥ १॥

अशुभ छोड़ शुभ पाऊँगा, शुभ तज शुद्ध ही ध्याऊँगा।
कर निश्चय-व्यवहार स्तुति, सिद्धों सा सुख पाऊँगा॥
रहा विमर्श यही मन में, भक्ति सदा हो जीवन में।
गुरु विराग आशीष मिले, साँस रहे जब तक तन में॥
प्रभु तेरी भक्ति मुझे प्रभु बनाये रे॥ २॥

- मुनि श्री विमर्शसागरजी महाराज

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