भक्तामर स्तोत्र (शर्मनलाल सरस सकरार द्वारा रचित) | Bhaktamar Stotra (By Sharmanlal Saras Sarkar)

जो भक्त सुरों के मुकुटों की, मणियों की कान्ति बढ़ाते हैं।
जिनकी आभा से धरती के, कण-कण ज्योतित हो जाते हैं॥
जिनके पग पाप-तिमिर हरते, भव तरने जो आलम्बन हैं।
उन आदि-काल के आदि प्रभु, आदिश्वर का शत वन्दन है॥ १॥

जो सकल वाङ्मय के ज्ञाता, प्रज्ञा का पार न पाया है।
ऐसे सुर इन्द्रों ने जिनका, स्तोत्रों से गुण गाया है॥
मैं भी त्रय जगत चित्त हारी, उन आदिनाथ को ध्याता हूँ।
प्रस्तुत कर पुण्य स्तवन से, मैं अपना भाग्य जगाता हूँ॥ २॥

हैं इन्द्र सुरेन्द्रों से पूजित, जब जिनकी पावन पाद-पीठ।
फिर मेरी क्या औकात भला! मैं हूँ अबोध अल्पज्ञ ढ़ीठ॥
तो भी लज्जा को छोड़ नाथ! तैयार उसी विधि गाने को।
जैसे पानी में प्रतिबिम्बित उद्धत हो, शिशु शशि पाने को॥ ३॥

यह सच जिनके जब गुण अनंत, वृहस्पति-सा गुरु गा सका नहीं।
जो चाँद पूर्णिमा से पावन, वह कुछ भी दर्शा सका नहीं॥
तो फिर किसकी ऐसी हस्ती, जो पूर्ण आपके गुण गाये।
प्रिय प्रलयकाल से उद्वेलित, सागर के कौन पार पाये॥ ४॥

तो भी मैं भक्ति प्रेरणा से, स्तवन करने ललचाता हूँ।
होकर के शक्तिहीन भगवन्, मैं वैसे कदम बढ़ाता हूँ॥
जैसे हिरनी ममता के बस, कुछ सोच विचार न करती है।
हो निर्बल शिशु छुड़ाने को, खुद सिंह सामना करती है॥ ५॥

माना उपहास पात्र अब मैं, विज्ञों में माना जाऊँगा।
पर नाथ आपकी भक्ति ही, ऐसी जो छोड़ न पाऊँगा॥
जैसे वसंत ऋतु आम मौर लख, कोयल कूक मचाती है।
बस उसी तरह से तुम्हें देख, मन में उमंग आ जाती है॥ ६॥

क्या करूँ आपकी विनय अहो, प्रभु कितनी अतिशयकारी है।
जग के जीवों की भव-भव की, वह पाप रूप परिहारी है॥
हे नाथ! आपकी भक्ति से, संकट वैसे हट जाता है।
ज्यों प्रात सूर्य की किरणों से, तत्काल तिमिर छट जाता है॥ ७॥

अतएव मंद मति होकर भी, कर रहा शुरु स्तवन विभु।
कारण तेरे गुण का प्रभाव, वैसे सज्जन मन हरे प्रभु॥
ज्यों नाथ! कमल के पत्तों पर, जब ओस बूँद पड़ जाती है।
तब वह मोती का रूप धार, जग मोहित कर हर्षाती है॥ ८॥

निर्दोष स्तवन बहुत दूर, पर एक मात्र जो नाम जपे।
सच कहता हूँ तत्काल प्रभु, सारी जगती के पाप कटे॥
जिस तरह दूर से ही दिनेश, निज प्रभा इस तरह फैलाता।
कितना ही दूर सरोवर हो, खिल कमल फूल तत्क्षण जाता॥ ९॥

हे भुवन विभूषण भूतनाथ! जो भव्य आपको ध्याते हैं।
वे भक्त-भक्त से ध्यानी बन, भगवान् स्वयं बन जाते हैं॥
लेकिन इससे अचरज ही क्या, अचरज जिससे बढ़ सके नहीं।
वह स्वामी क्या जो सेवक को, अपने समान कर सके नहीं॥ १०॥

जो एक बार टकटकी लगा, भगवान् तुम्हें लख लेता है।
वह तुम्हें छोड़ अन्यत्र देव, लख कर भी नाम न लेता है॥
सच है जिसने क्षीरोदधि का, मीठा पावन जल चाखा हो।
फिर उसको खारे सागर के, जल की कैसे अभिलाषा हो॥ ११॥

लगता त्रिभुवन के अलंकार, जिस क्षण तेरा अवतार हुआ।
वे उतने ही परमाणु थे, जिनसे यह तन तैयार हुआ॥
इसलिए आप जैसा प्रशांत, जिसका विरागता से नाता।
लाखों देवों को देख चुका, पर तुम सा देव नहीं पाता॥ १२॥

क्या कहें आपका यह आनन, कितना आनंद प्रदाता है।
वह सुर-नर-असुर कोई भी हो, हर नयनों को हर्षाता है॥
कैसे कह दूँ शशि ढाकपात-सा दिन में तेज गमाता है।
वह तुम जैसा कब हो सकता, जिस पर कालापन छाता है॥ १३॥

हे नाथ! आपने सचमुच में, ऐसे सुन्दर गुण पाये हैं।
पूनम की चाँद कला जैसे, जो तीन लोक में छाये हैं॥
कारण उनको जब तुम जैसा, मिल गया महाबल वाला है।
विचरण से उन्हें लोक भर में, फिर कौन रोकने वाला है॥ १४॥

इसमें क्या अचरज नाथ आप हो, अटल अचल संयम धारी।
इसलिए स्वर्ग की हर देवी, हर तरह रिझा करके हारी॥
सच प्रबल पवन के झोकों से, कितने ही गिरी गिर जाते हैं।
लेकिन सुमेरुगिरि शिखर कभी तूफान हिला भी पाते हैं?॥ १५॥

तुम ऐसे तीन भुवन दीपक, निर्धूम वर्तिका काम नहीं।
तुम बिना तेल के जलते हो, बुझने का लेते नाम नहीं॥
चाहे जैसी हो प्रलय पवन, कर सके प्रभंजन मंद नहीं।
हे परम ज्योति प्रख्यात शिखा, कोई तुमसा निद्र्वन्द नहीं॥ १६॥

हे नाथ! तुम्हें क्यों सूर्य कहें, तुम उससे काफी आगे हो।
तुम अस्त न हो, राहू न ग्रसे, बादल लख कभी न भागे हो॥
तेरा प्रभाव त्रय लोकों में, इक साथ रोशनी लाता है।
लेकिन सूरज सीमित थल तक, अपना प्रकाश फैलाता है॥ १७॥

हे नाथ! आपका मुख-शशि तो, मोहांधकार का हर्ता है।
चाहे दिन हो या रात नाथ, उसमें कुछ फर्क न पड़ता है॥
फिर कैसे हो वह चन्द्र सदृश, जो सहसा लुप्त नजर आये।
जिसको राहु अहि-सा डस ले, मेघों से क्षण में घिर जाये॥ १८॥

हे प्रभु! आपके मुख सन्मुख रवि शशि रखता कुछ अर्थ नहीं।
वह बाहर का तम हरे भले, अन्तस तम हरे समर्थ नहीं॥
जिस तरह फसल पक जाने पर, पानी बरसे अस्तित्व नहीं।
बस उसी तरह इन दोनों का, तेरे ढिग़ नाथ महत्त्व नहीं॥ १९॥

स्व-पर प्रकाश की ज्ञान ज्योति, जिस तरह आपने पाई है।
वैसी ही हरिहरादि सुर में, प्रभु देती नहीं दिखाई है॥
इसलिए आपका आकर्षण, करता उन सबको थोता है।
सच है जो तेज रत्न में हो, क्या कभी काँच में होता है?॥ २०॥

अच्छा ही हुआ नाथ मैंने, जो अन्य देवगण को देखा।
उनके कारण से ही भगवन्, स्पष्ट हुई अन्तर रेखा॥
हे नाथ! अन्य अवलोकन की, अब मुझको क्या आवश्यकता।
लूँ कितने ही मैं जन्म धार, मन अन्य न कोई हर सकता॥ २१॥

जग में जाने कितनी जननी, जन्मा करती हैं पुत्र अनेक।
लेकिन तुमसा सुत जन्म सकी, जग में मरुदेवी मात्र एक॥
जैसे दिनेश की किरणों को, हर एक दिशाओं ने धारा।
पर सूर्य उदय हो एक मात्र, बस पूर्व दिशा के ही द्वारा॥ २२॥

हे मुनीनाथ! मुनिगण तुमको, सूरज से तेज बताते हैं।
वे बना तुम्हें अपना निमित्त, खुद कालजयी हो जाते हैं॥
तेरा अविलम्बन आलम्बन, शिवपुर का परम प्रदाता है।
इससे बढक़र कल्याण मार्ग, कोई भी नजर न आता है॥ २३॥

हैं नाम आपके प्रभु अनेक, चिर अजर-अमर पद पाया है।
हे स्वामी गणधर आदि ने, अव्यय असंख्य बतलाया है॥
हे देवोपम तुम आदि देव, या ब्रह्मा विष्णु विधाता हो।
तुम योगीश्वर हो कामकेतु, नवयुग शिल्पी शिवदाता हो॥ २४॥

सुर-बुध पूजित हैं आप बुद्धि, इसलिए सर्व प्रथम आप बुद्ध।
हो सच्चे सुख दाता शंकर, सर्वज्ञ शान्ति करता प्रसिद्ध॥
कहलाते तुम कैलाशपति, तप किया वहाँ से शिव पाया।
सृष्टी कर्ता प्रिय पुरुषोत्तम, तुमने बन करके बतलाया॥ २५॥

हे हर जीवों के दु:ख हर्ता, करता हूँ नाथ प्रणाम तुम्हें।
हे जग के अजर-अमर भूषण, मैं करूँ नमन अभिराम तुम्हें॥
हे निष्कामी निष्पृही नाथ! नमता गा-गाकर गान तुम्हें।
भव-सिन्धु सुखाने वाले प्रभु! करुणानिधि कोटि प्रणाम तुम्हें॥ २६॥

इसमें कोई सन्देह नहीं, सम्पूर्ण गुणों की आप डोर।
हे नाथ आपको छोड़ शुद्ध, मिल सका न कोई और ठौर॥
जो अन्य देवताओं को पा, रागादि भाव दर्शाते हैं।
वे तुम तक आने का भगवन्, साहस ही कब कर पाते हैं॥ २७॥

जब ऊँचे तरु अशोक नीचे, हे नाथ आप दिखलाते हो।
कैसे उतार दूँ शब्दों में, जो शोभा आप बढ़ाते हो॥
ज्यों श्यामल सघन बादलों में, रवि अपनी छटा दिखाता है।
उस सूरज से सौ गुना आपकी, तन सुषमा दर्शाता है॥ २८॥

हीरा-पन्ना नीलम आदि, रत्नों से सज्जित सिंहासन।
जब आप तिष्ठते हो उस पर, ऐसा लगने लगता आनन॥
माणिक मुक्ता की आभा ने, सचमुच में चक्कर खाया हो।
या उदयाचल पर सहस्र किरण, वाला सूरज उग आया हो॥ २९॥

जब चौंसठ चमर इन्द्र ढ़ोरें, छवि समवसरण बढ़ जाती है।
तव कुन्द पुष्प-सी धवल देह, लख सुषमा धरा लजाती है॥
लगता जैसे सुमेरुगिरि पर, गिर जल प्रपात की धारा हो।
या चन्द्र ज्योत्स्ना ने अपना, साकार रूप विस्तारा हो॥ ३०॥

हे ईश! आपके शीर्ष तीन, जो लटके छत्र दिखाते हैं।
उनकी शशि सम कान्ति जिन पर, रवि धूप न फैला पाते हैं॥
त्रय छत्रों की वह चमक-दमक, जिसको लख स्वर्ण लजाता है।
उसका ऐश्वर्य त्रिलोकपति, होने की बात बताता है॥ ३१॥

दिग्मंडल में जब दिव्यध्वनि, भगवान् आपकी खिरती है।
उसको सुनकर के पता नहीं, तब कितनों की ऋतु फिरती है॥
लगता ज्यों संत समागम का, नभ में बज रहा नगाड़ा हो।
या गूँज गगन में जिनमत की, हो रही सुरों के द्वारा हो॥ ३२॥

जब जल गंधोदक बूँदों से, सुरभित हो बह उठती समीर।
तब समवसरण में कल्पवृक्ष हों, स्वागत करने को अधीर॥
तब देव गगन में प्रमुदित हो, इतने प्रसून बरसाते हैं।
लगता वे प्रसून नहीं दव्यिध्वनि-सी ध्वनि उनमें हम पाते हैं॥ ३३॥

क्या कहें आपकी दिव्य देह से, दीप्त जन्म जब लेती है।
तब वह भामंडल बन जग को, दैदीप्यमान कर देती है॥
त्रय लोकों में जितने पदार्थ, चमकीले हमें दिखाते हैं।
उस समय आपकी आभा से, वे सब फीके पड़ जाते हैं॥ ३४॥

हे नाथ! आपकी ध्वनि, स्वर्ग शिव मार्ग बताने वाली है।
अपनी-अपनी भाषाओं में, परिणमन कराने वाली है॥
प्रिय दिव्यध्वनि में सप्त तत्त्व, हो नव पदार्थ परिभाषा है।
जो इनको आत्मसात कर ले, हो उसकी पूर्ण पिपासा है॥ ३५॥

हे नाथ! आपके युगल-चरण, हैं स्वर्ण-सरोजों से सुन्दर।
चरणों के नख यों कान्तिमान, जिस जगह पैर पड़ते भू पर॥
उस पल विहार की बेला में, पग जिनवर जहाँ बढ़ाते हैं।
पहले से ही सुर वहाँ-वहाँ, सोने के कमल रचाते हैं॥ ३६॥

इस विधि धर्मोपदेश में प्रभु, जो आप विभूति बताई है।
वैसी ही अन्य धर्म वालों के, संग में नहीं दिखाई है॥
सच है जो ज्योति भुवन भू पर, इक मार्तण्ड की पाते हैं।
वैसी करोड़ नक्षत्र कभी, इक साथ नहीं कर पाते हैं॥ ३७॥

प्रभु जिसके युगल कपोलों पर, मधु मद के झरने-झरते हों।
जिस पर मडऱाकर के मधुकर, गुनगुन कोलाहल करते हों॥
ऐसा ऐरावत-सा कुंजर, क्रोधित जब टकरा जाता है।
तब नाथ! आपका परम भक्त, उससे न जरा भय खाता है॥ ३८॥

अपने नाखूनों से जिसने, गज के मस्तक को फाड़ा हो।
गज मुक्ताओं से धरा सजा, बनकर विकराल दहाड़ा हो॥
ऐसे बर्बर के पंजे में, जिन भक्त कदाचित पड़ जाये।
वह सिंह क्रूरता भूल तभी, अरि से स्नेही दिखलाये॥ ३९॥

हो कैसे भी पावक प्रचण्ड, वन प्रलय-पवन धधकाती हो।
लगता हो जैसे अभी-अभी, वह आसमान छू जाती हो॥
ऐसे दावानल वेग समय, जो नाथ आपको ध्याता है।
तत्काल आपका नाम-नीर, पावक को नीर बनाता है॥ ४०॥

कोयल के कण्ठ समान कुपित, कैसा भी नाग कराला हो।
दिखला कर लाल-लाल लोचन, फण फैला डसने वाला हो॥
तब तेरी नाम नाग दमनी, औषधि समीप जो रखते हैं।
उनका कैसे भी विषधर हों, कुछ अहित नहीं कर सकते हैं॥ ४१॥

अगणित तुरंग हिन-हिना रहे, गज भी चिंघाड़ मचाता हो।
उस समय समर की धूली में, दिनकर भी नहीं दिखाता हो॥
तब नाथ! आपके ही बल पर, लड़ रिपु दल यों हट जाता है।
ज्यों सूर्योदय के होते ही, तम-तोम स्वयं छट जाता है॥ ४२॥

घातक शस्त्रों से क्षत-विक्षत, गज शोणित दरिया बहता हो।
उसमें तेजी से उतर तैरने को हर योद्धा कहता हो॥
तब उस भीषण रण बीच भक्त रिपुओं को वही हराता है।
जो नाथ! आपके शान्त और शीतल पग पंकज ध्याता है॥ ४३॥

कैसा भी होवे मगर-मच्छ, पड़ घडिय़ालों से पाला हो।
पावक ने सारा सागर जल, बड़वानल सा कर डाला हो॥
उस उथल-पुथल तूफां में वे, अपना जलयान बचाते हैं।
जो नाथ! आपका दृढ़ होकर, क्षण भर भी ध्यान लगाते हैं॥ ४४॥

भव-रोग निवारक सर्वश्रेष्ठ, प्रभु तुमसा वैद्य नहीं कोई।
हो महा जलोदर आदि रोग, बचने की आस नहीं होई॥
ऐसे रोगी तेरे पद की, जो तन पर धूल लगाते हैं।
वे निश्चित ही होकर निरोग प्रभु कामदेव बन जाते हैं॥ ४५॥

जब नाथ! आपके वन्दन से, कर्मों की कडिय़ाँ कटती हैं।
तब लोह शृंखलाएँ कब तक, भक्तों का तन कस सकती हैं?
जिसका तन नख से चोटी तक, हो कसा छिली जंघायें हों।
प्रभु नाम लिए अब वे टूटीं, फिर पूर्ण न क्यों आशायें हों॥ ४६॥

जो श्रद्धावान भक्त इसका, पारायण कर हर्षाता है।
अनवरत अटल तन्मय होकर, जो सुनता और सुनाता है॥
उसको गज, सिंह, अहि, अग्नि, रण में रिपु हरा न पाते हैं।
रहता है कोई रोग नहीं, वे मनवाँछित फल पाते हैं॥ ४७॥

भक्तामर की यह वर्ण-माल, जो मानतुंग ने गूँथी है।
सचमुच सर्वोत्तम फलकारी, हे भव्यो इतनी ऊँची है॥
कह सरस जैन सकरार, इसे दृढ़ हो जो धारण करता है।
वह मानतुंग आचारज सा चिर मुक्ति-लक्ष्मी वरता है॥ ४८॥

- शर्मनलाल सरस सकरार

Image source:
'Mahavir Tapo Bhumi' by Tapori the, image compressed, is licensed under CC BY-SA 4.0

Post a Comment

Support Us with a Small Donation