श्री पद्मप्रभु भगवान चालीसा | Shree Padamprabhu Bhagwan Chalisa

(दोहा)


शीश नवा अरिहन्त को सिद्धन करूँ प्रणाम ।

उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम ।।

सर्व साधु और सरस्वती जिनमंदिर सुखकार ।

पद्मपुरी के पद्म को मन-मंदिर में धार ।।


(चौपाई छन्द)


जय श्री पद्मप्रभ गुणधारी, भवि-जन को तुम हो हितकारी ।

देवों के तुम देव कहाओ, पाप भक्त के दूर हटाओ ।।१।।


तुम जग में सर्वज्ञ कहाओ, छट्ठे तीर्थंकर कहलाओ ।

तीन-काल तिहुँ-जग को जानो, सब बातें क्षण में पहचानो ।।२।।


वेष-दिगम्बर धारणहारे, तुम से कर्म-शत्रु भी हारे ।

मूर्ति तुम्हारी कितनी सुन्दर, दृष्टि-सुखद जमती नासा पर ।।३।।


क्रोध-मान-मद-लोभ भगाया, राग-द्वेष का लेश न पाया ।

वीतराग तुम कहलाते हो, सब जग के मन को भाते हो ।।४।।


कौशाम्बी नगरी कहलाए, राजा धारण जी बतलाए ।

सुन्दरी नाम सुसीमा उनके, जिनके उर से स्वामी जन्मे ।।५।।


कितनी लम्बी उमर कहाई, तीस लाख पूरब बतलाई ।

इक दिन हाथी बँधा निरखकर, झट आया वैराग उमड़कर ।।६।।


कार्तिक-वदी-त्रयोदशी भारी, तुमने मुनिपद-दीक्षा धारी ।

सारे राज-पाट को तज के, तभी मनोहर-वन में पहुँचे ।।७।।


तपकर केवलज्ञान उपाया, चैत सुदी पूनम कहलाया ।

एक सौ दस गणधर बतलाए, मुख्य वज्रचामर कहलाए ।।८।।


लाखों मुनि अर्यिका लाखों, श्रावक और श्राविका लाखों ।

संख्याते तिर्यंच बताये, देवी-देव गिनत नहीं पाये ।।९।।


फिर सम्मेदशिखर पर जाकर, शिवरमणी को ली परणा कर ।

पंचमकाल महादु:खदाई, जब तुमने महिमा दिखलाई ।।१०।।


जयपुर-राज ग्राम ‘बाड़ा’ है, स्टेशन ‘शिवदासपुरा’ है ।

‘मूला’ नाम जाट का लड़का, घर की नींव खोदने लागा ।।११।।


खोदत-खोदत मूर्ति दिखाई, उसने जनता को बतलाई ।

चिहन ‘कमल’ लख लोग लुगाई, पद्म-प्रभ की मूर्ति बताई ।।१२।।


मन में अति हर्षित होते हैं, अपने दिल का मल धोते हैं ।

तुमने यह अतिशय दिखलाया, भूत-प्रेत को दूर भगाया ।।१३।।


भूत-प्रेत दु:ख देते जिसको, चरणों में लेते हो उसको ।

जब गंधोदक छींटे मारे, भूत-प्रेत तब आप बकारे ।।१४।।


जपने से जब नाम तुम्हारा, भूत-प्रेत वो करे किनारा ।

ऐसी महिमा बतलाते हैं, अन्धे भी आँखें पाते हैं ।।१५।।


प्रतिमा श्वेत-वर्ण कहलाए, देखत ही हिरदय को भाए ।

ध्यान तुम्हारा जो धरता है, इस-भव से वह नर तरता है ।।१६।।


अन्धा देखे गूंगा गावे, लंगड़ा पर्वत पर चढ़ जावे ।

बहरा सुन-सुनकर खुश होवे, जिस पर कृपा तुम्हारी होवे ।।१७।।


मैं हूँ स्वामी दास तुम्हारा, मेरी नैया कर दो पारा ।

चालीसे को ‘चंद्र’ बनावे, पद्म-प्रभ को शीश नवावे ।।१८।।


(सोरठा)


नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन ।

खेय सुगंध अपार, पद्मपुरी में आयके ।।

होय कुबेर-समान, जन्म-दरिद्री होय जो ।

जिसके नहिं संतान, नाम-वंश जग में चले ।।


- कविश्री चंद्र


Image source:

'Footprint at Padmaprabhu Tonk, Shikharji' by Bodhisattwa, image compressed, is licensed under CC BY-SA 4.0

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